हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा और लोकपाल लक्ष्मण मंदिर के कपाट खुलने से जगी उम्मीदें
तीन माह के विलंब के बावजूद चार सितंबर को हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा और लोकपाल लक्ष्मण मंदिर के कपाट खुलने से भ्यूंडार घाटी के गांवों में आशा का संचार हुआ है।
देहरादून, जेएनएन। तीन माह के विलंब के बावजूद चार सितंबर को हेमकुंड साहिब गुरुद्वारा और लोकपाल लक्ष्मण मंदिर के कपाट खुलने से भ्यूंडार घाटी के गांवों में आशा का संचार हुआ है। चारों धाम में बदरीनाथ को छोड़कर केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री के कपाट पूर्व में तय तिथि पर खुलने के बावजूद भ्यूंडार घाटी में अभी तक सन्नाटा पसरा हुआ था। जबकि, घाटी के गांवों की आर्थिकी पूरी तरह हेमकुंड साहिब यात्रा पर ज्यादा निर्भर है।
लोकपाल लक्ष्मण मंदिर में दर्शन करने वाले श्रद्धालु भी वही होते हैं, जो हेमकुंड में मत्था टेकने आते हैं। ऐसे में घाटी के निवासियों के लिए इस यात्रा की क्या अहमियत है, समझा जा सकता है। यह ठीक है कि दोनों धाम के कपाट सिर्फ दस अक्टूबर तक ही खुले रहेंगे, बावजूद इसके घाटी में रौनक लौटने से स्थानीय निवासियों को कुछ तो रोजगार मिलेगा ही। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की यह मंशा फलीभूत होगी।
कोरोना जांच की एंटीजन किट में खामियां मिलना चिंताजनक
बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच उत्तरकाशी जिले के बड़कोट कोविड कलेक्शन सेंटर में कोरोना जांच की एंटीजन किट में खामियां मिलना निश्चित रूप से चिंताजनक है। यहां करीब तीन सौ एंटीजन किट भेजी गई थी, जिनमें लीकेज की शिकायत मिली। इनकी पैकिंग भी सही नहीं है और ढक्कन भी टूटे हुए हैं। वैसे बताया जा रहा कि सारी किट खराब नहीं हैं और इनकी खरीद भी निदेशालय स्तर से ही हुई है। फिर भी सवाल तो उठता ही है कि किट की खरीद में ऐसी लापरवाही क्यों बरती गई। खरीद से पहले किट की गुणवत्ता भी तो परखी जाती होगी। यह ठीक है कि किट आइसीएमआर से अधिकृत कंपनी से खरीदी गई हैं और इन्हें वापस लौटाने में भी कोई दिक्कत नहीं है। पर, इससे समय, श्रम और धन की बरबादी तो हुई ही है। ऐसे में उत्तरकाशी के जिलाधिकारी का मामले की जांच के आदेश देना पूरी तरह उचित है।
जर्जर विद्यालय भवन
सरकार चाहे तो कोरोना काल में कुछ अच्छा भी घट सकता है। मसलन, सुविधाविहीन विद्यालयों की दशा सुधारी जा सकती है। खासकर उन विद्यालयों की, जिनके वर्षों पहले बने भवन देख-रेख के अभाव में जर्जरहाल हो चुके हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में तो ज्यादातर विद्यालय भवनों का यही हाल है। इनमें भी प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय भवनों की स्थिति सर्वाधिक खराब है। कई भवन तो ऐसे हैं, जिन पर बनने के बाद आज तक ठीक से रंगाई-पुताई भी नहीं हो पाई। ऐसे में ये भवन कब भरभरा कर ढह जाएं, कहा नहीं जा सकता। खासकर बरसात में तो यह खतरा और भी बढ़ जाता है। बीते वर्षों में ऐसे कई मामले सामने भी आ चुके हैं। लेकिन, विडंबना देखिए कि कोरोना काल में शासन, प्रशासन व शिक्षा विभाग, किसी ने भी इनकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा। यहां तक कि जनप्रतिनिधि भी इस ओर आंख मूंदे हुए हैं।
वर्ष 2013 की आपदा के बाद और भी बढ़ी मुश्किलें
बरसात हमेशा ही पहाड़ के लिए मुश्किलें लेकर आती है। खासकर, उन गांवों के लिए, जिनके रास्ते में बरसाती गदेरे या नदियां पड़ती हैं। वर्ष 2013 की आपदा के बाद तो मुश्किलें और भी बढ़ी हैं। इसकी वजह है संपर्क मार्ग पर बने मोटर व पैदल पुलों का बह जाना। जिनकी जगह आज तक नए पुलों का निर्माण नहीं हो पाया। कहीं बजट की कमी आड़े आ रही है तो कहीं वन कानूनों का रोड़ा। ऐसे में इन गांवों के लोग जान जोखिम में डालकर उफनते गदेरे व बरसाती नदियों को पार करने के लिए मजबूर हैं। कई जगह ग्रामीणों ने स्वयं ही लकड़ी के कच्चे पुल बनाए हुए हैं, लेकिन बरसात में इनसे गुजरना भी खतरे से खाली नहीं। इसके अलावा कुछ स्थानों पर प्रशासन ने नदियों पर ट्रालियां भी लगाई हैं, लेकिन इनमें भी जोखिम कम नहीं। बावजूद इसके सरकार शायद बीते अनुभवों से सबक नहीं लेना चाहती।