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सरकारी चौखट पर हो रहा आरटीआइ कानून का 'कत्ल'

उत्तराखंड में साल 2006 से 2017 तक सूचना आयोग ने अधिकारियों पर 1.49 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया, जबकि वसूली महज 24.94 लाख की ही हो पाई है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Tue, 22 May 2018 04:52 PM (IST)Updated: Thu, 24 May 2018 05:16 PM (IST)
सरकारी चौखट पर हो रहा आरटीआइ कानून का 'कत्ल'
सरकारी चौखट पर हो रहा आरटीआइ कानून का 'कत्ल'

देहरादून, [सुमन सेमवाल]: सरकारी अधिकारी फाइलों में क्या कारगुजारी कर रहे हैं, उसका जनता को पता न चल पाए, इसके लिए देश के सबसे बड़े नागरिक कानून 'आरटीआइ' की भी परवाह नहीं की जा रही। सूचना देने में आनाकानी करने वाले अधिकारियों पर जब सूचना आयोग जुर्माना लगा रहा है तो इसे अदा करने में भी परहेज किया जा रहा है। हैरानी की बात है कि वर्ष 2006 से 2017 तक सूचना आयोग ने 1.49 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया और वसूली महज 24.94 लाख की ही हो पाई, जो कि कुल जुर्माने का महज 16.68 फीसद है। इस बात का खुलासा आरटीआइ कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह की ओर से मांगी गई जानकारी में हुआ। 

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वर्ष 2005-06 में सूचना आयोग का गठन किया गया और आरटीआइ की अपीलों की सुनवाई शुरू की गई। तब पहले साल सूचना देने से परहेज करने वाले अधिकारियों पर 55 हजार रुपये का जुर्माना लगा था। दिलचस्प यह कि तब जुर्माने की यह पूरी राशि वसूल कर ली गई थी। हालांकि इसके बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया, अधिकारी न सिर्फ जुर्माने के आदी होने लगे, बल्कि इसे जमा कराने से भी मुंह मोड़ने लगे। किसी लोक सूचना अधिकारी पर जुर्माना लगाए जाने के बाद उसकी वसूली की जिम्मेदारी उससे उच्च पद पर विभागीय अपीलीय अधिकारी के रूप में बैठे अधिकारी की होती है।

इसके बाद भी जुर्माना अदा न किया जाना यह भी बताता है कि सूचना देने में आनाकानी करने और फिर जुर्माने से भी कन्नी काटने के लिए अधिकारी एकजुट होकर आयोग की नाफरमानी कर रहे हैं। जुर्माने की यह राशि सामान्य प्रशासन विभाग के खाते में जमा की जाती है और यह विभाग सूचना आयोग का नोडल विभाग भी है। हैरान करने वाला पहलू यह किय खुद नोडल एजेंसी सामान्य प्रशासन ने भी कभी अधिकारियों की इस प्रवृत्ति पर लगाम कसने के लिए प्रयास नहीं किए। 

जुर्माने के मोर्चे पर अलग-थलग आयोग

सूचना आयोग ने वर्ष 2016-17 तक 1334 मामलों में जुर्माना लगाया है और इनमें से 198 मामलों में जुर्माने के खिलाफ कोर्ट से स्टे मिल गया। जुर्माने को जायज बताने के लिए कुछ समय तो आयोग ने कोर्ट में पैरवी की और इसके लिए वर्ष 2007-08 से वर्ष 2011-12 के बीच 8.70 लाख रुपये की राशि पैरवी पर खर्च भी की। जबकि, इसके बाद किसी भी स्टे पर आयोग ने कोई पैरवी नहीं की।

मुख्य सूचना आयुक्त शत्रुघ्न सिंह का कहना है कि आयोग संवैधानिक संस्था है, लिहाजा उसे पार्टी नहीं बनाया जा सकता। ऐसे में आयोग के आदेश पर जो भी स्टे मिले हैं, उसमें अब पैरवी नहीं की जा रही। आयोग के नोडल विभाग को इस बारे में सोचना चाहिए कि जुर्माने की वसूली किस तरह कराई जाए।

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