सरकारी मशीनरी के कलपुर्जे हांके बगैर कहां करते हैं हलचल
प्रदेश में सरकारी मशीनरी के कलपुर्जे हांके बगैर हलचल करते भी कहां हैं। यातायात व्यवस्था के लिए नासूर बन चुके अतिक्रमण पर भी अफसरों की नींद तभी टूटी जब न्यायालय ने चादर खींची। दो वर्ष पहले भी न्यायालय को यह करना पड़ा था।
देहरादून, विजय मिश्रा। कोरोना के बाद फिलवक्त प्रदेश में सबसे ज्यादा चर्चा अतिक्रमण पर चल रहे डंडे की है। अभी कल की ही बात है, एक चाय की दुकान पर प्रशासन की इस कार्रवाई की चर्चा का बाजार गर्म था। एक सज्जन कह रहे थे कि देर से ही सही, प्रशासन ने अच्छा कदम उठाया। तभी दूसरे सज्जन बोल पड़े, 'अरे छोड़िये भी, हमारी मशीनरी तो जिद्दी बल्द ठहरी, जब तक चाबुक न लगे हिलती भी नहीं बल।' न चाहते हुए भी मैं उनकी बात से असहमति नहीं जता सका। बात सही भी थी, प्रदेश में सरकारी मशीनरी के कलपुर्जे हांके बगैर हलचल करते भी कहां हैं। यातायात व्यवस्था के लिए नासूर बन चुके अतिक्रमण पर भी अफसरों की नींद तभी टूटी, जब न्यायालय ने चादर खींची। दो वर्ष पहले भी न्यायालय को यह करना पड़ा था। अब सवाल यह है कि आखिर कब तक न्यायालय सरकारी मशीनरी को अव्यवस्थाओं से रूबरू कराता रहेगा।
दुरुस्त आए सरकार
प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में जो कार्य वर्षों पहले हो जाना चाहिए था, उसकी कवायद अब शुरू हुई है। बात हो रही है नदियों के बाढ़ क्षेत्र की। खैर! देर आए, दुरुस्त आए। सात वर्ष पहले प्रदेश में कहर ढाने वाली केदारनाथ आपदा से सबक लेते हुए आखिरकार सरकार ने अब नदियों के बाढ़ क्षेत्र घोषित कर दिए हैैं। लिहाजा, अब प्रदेश की नदियां आसानी से सांस ले पाएंगी। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में पहले कोशिश नहीं हुई। बाढ़ मैदान परिक्षेत्र अधिनियम तो वर्ष 2012 में ही अस्तित्व में आ गया था। लेकिन, बाढ़ क्षेत्र के निर्धारण की चाल इतनी सुस्त रही कि कछुआ भी शर्मसार हो जाए। हालांकि, प्रदेश के गठन के साथ ही अगर इस दिशा में जरूरी कदम उठाए जाते तो काफी हद तक संभव था कि राज्य को वर्ष 2013 में आई आपदा में इतना नुकसान नहीं उठाना पड़ता।
उम्मीद के अंकुर
पहाड़ के पानी की तरह यहां की जिंदगानी का मिजाज भी काफी सख्त है। सेंटर फॉर मॉनीटङ्क्षरग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) की हालिया रिपोर्ट में बेरोजगारी के मामले में उत्तराखंड का पहले पायदान पर होना भी यही दर्शाता है। राज्य में बढ़ते पलायन का मूल भी यही है। सुखद यह है कि इस सबके बीच प्रदेश में उम्मीद के अंकुर भी फूट रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य से लकदक उत्तराखंड की हसीन वादियां फिल्म इंडस्ट्री को खूब लुभा रही हैं। हर वर्ष यहां लाइट-कैमरा-एक्शन की गूंज बढ़ती जा रही है। यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत है। बीते दिनों मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राज्य में फिल्म सिटी के निर्माण की बात भी कही थी। अगर मुख्यमंत्री अपनी योजना को धरातल पर उतारने में कामयाब रहे तो राज्य के हजारों युवाओं की उम्मीदों को खुशियों के पंख लग जाएंगे। संभव है कि इससे भविष्य में पलायन पर अंकुश की राह भी प्रशस्त हो।
और अंत में
किसी भी समाज में बुजुर्ग उस जड़ की भूमिका निभाते हैं, जो पेड़ को न सिर्फ मजबूती देती है, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर रखती है। लेकिन, यह विडंबना ही है कि प्रदेश में बहुत से बुजुर्ग एकाकी जीवनयापन करने को मजबूर हैं। ऐसे बुजुर्गों की सुरक्षा हमेशा सवालों के कठघरे में रहती है, खासकर शहरी क्षेत्रों में। हरिद्वार में भेल के रिटायर्ड डीजीएम और उनकी पत्नी की हत्या के बाद एक बार फिर बुजुर्गों की सुरक्षा का मुद्दा चर्चा में है। इस मोर्चे पर ज्यादातर समय सुषुप्त अवस्था में रहने वाली पुलिस की निद्रा भी इस घटना से टूटी है। धूल फांक रहे सीनियर सिटीजन रजिस्टर एक बार फिर खंगाले जाने लगे हैं। लेकिन, क्या बुजुर्गों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ पुलिस की ही है। हमें भी तो इसमें अपनी भूमिका तय करनी चाहिए। सभ्य समाज के मायने भी यही बतलाते हैं और वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा भी।
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