कोरोना की हिमाकत, पहचाना ही नहीं; साहिबान के गिरेबां में हाथ डाल दिया
कोरोना वायरस की जुर्रत तो देखिए पहचाना ही नहीं। साहिबान के गिरेबां में हाथ डाल दिया। फिर क्या पूरा फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट परिसर कोरंटाइन करना पड़ गया है।
देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। शिक्षा व्यवस्था को समाज का आईना ऐसे ही नहीं कहा जाता। हमारी शिक्षा पद्धति डॉक्टर, इंजीनियर, नौकरशाह समेत ऐसा सबकुछ बनाने की दिशा में हमें धकेल रही है जो भी अच्छे कमाऊ-खाऊ पेशे से जुड़ता है। बच्चा शिक्षा ग्रहण करने के बाद अच्छा और जिम्मेदार नागरिक बन पा रहा है, यह न शिक्षा के केंद्र में है और न ही नीति नियंताओं की प्राथमिकता। खूब पढ़ाई की, बन गए भारतीय वन सेवा के अधिकारी। प्रशिक्षण लेने विदेश घूमे। ज्ञानार्जन किया तो सबसे पहले परीक्षा कोरोना ने ली। कोरोना संक्रमण के साथ साहिबान देहरादून पहुंचे तो कर दिए गए कोरंटाइन। ऊपर से साहिबान पर डाक्टरों, पैरामेडिकल स्टाफ से अभद्रता के आरोप लगाए जा रहे हैं। अधिकार और महंगी सुविधाएं नहीं तो किस बात के साहब। बताइये, क्या ये सही है। कोरोना की जुर्रत, पहचाना ही नहीं। साहिबान के गिरेबां में हाथ डाल दिया। पूरा फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट परिसर कोरंटाइन है।
कहां गई फाइल
शिक्षाविद साफतौर पर मानते हैं कि विद्यालयों के सुचारू संचालन, अनुशासन, शैक्षिक वातावरण के लिए प्रधानाचार्यों को होना आवश्यक है। प्रदेश के इंटर कॉलेजों की मौजूदा बदहाली का एक बड़ा कारण यही है। 1387 सरकारी इंटर कॉलेजों में 875 में प्रधानाचार्य नहीं हैं। मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि प्रधानाचार्यों के पद भरे जाएं। पदोन्नति से इन पदों को भरने में अड़चन आने पर तोड़ निकाला गया। शासन के निर्देश पर मंथन हुआ। यह तय हुआ कि पदोन्नति के पदों को छोड़कर शेष पदों को सीधी भर्ती से भरा जाएगा। माध्यमिक शिक्षा निदेशालय ने सीधी भर्ती से नियुक्ति के लिए मौजूदा नियमावली में संशोधन कर प्रस्ताव बनाया और शासन को भेज दिया। एक शिक्षा सत्र पूरा गुजरने को है और प्रस्ताव कार्मिक में ही फंसकर रह गया है। फाइल फंसने का नतीजा ये है कि इंटर कॉलेजों की किस्मत का अहम फैसला भी लटक गया है।
फैसला लें जनाब
गंभीर से गंभीर समस्या को पहले लटकाए रखना, अगर किसी तरह सुलझ गई तो उसे फिर उलझाए रखना सरकारी तंत्र की कलाकारी है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेशों और बार-बार मॉनीटरिंग के बाद प्रदेश के दूरदराज पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में शौचालय बनाए जा सके। यह मुहिम तब और परवान चढ़ी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें खास रुचि ली। सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रमों व अन्य संस्थाओं से कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉंसिबिलिटी के तहत शौचालयों का निर्माण कराया। यह सबकुछ पिछले कुछ वषों में जितना तेजी से हुआ, उतना ही तेजी से विद्यालयों में बने शौचालय बदहाल हो गए। वजह प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों में चौकीदार या स्वच्छकार की व्यवस्था नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में सफाई का बंदोबस्त नहीं होने से बड़ी संख्या में शौचालय इस्तेमाल करने लायक नहीं रहे हैं।
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टॉपर टापें लैपटॉप
वाकया 2014 का है, पुराना है। मगर है दिलचस्प। इसे सियासत कह लें या किस्सा कुर्सी का, लेकिन इस दांवपेच में जो ठगे रह गए, वे थे राज्य के मेधावी बच्चे यानी इंटर के टॉपर। उस दौरान जो मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने घोषणा कि इंटर के टॉपर बच्चों को लैपटॉप दिए जाएंगे। मेधावियों में खुशी की लहर दौड़ी थी। किस्मत के खेल ने पलटी मारी। सरकार वही रही, मुख्यमंत्री बदल गए। नए मुखिया के नए तेवर और नई घोषणाएं। पुरानी घोषणा-वायदे पर चढ़ा दिया मुलम्मा। लैपटॉप को टापते रहे गए टॉपर। इसके बाद सत्ता भी बदल गई। पांच साल बाद भी आज तक ये मेधावी नहीं जान पाए कि उनके साथ पहले मुख्यमंत्री-मुख्यमंत्री और फिर कांग्रेस-भाजपा का खेल क्यों खेला गया। मुख्यमंत्री की घोषणा का विलोप नहीं हुआ। विधानसभा में भी सवाल उठे, मंशा गायब हो गई। भविष्य संवारने के नाम पर प्रतिभाओं के साथ मजाक का ये नायाब नमूना है।
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