उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में खिलने लगे सफेद बुरांस के फूल
सुर्ख बुरांस के बारे में सभी जानते हैं मगर क्या आपको सफेद बुरांस के बारे में पता है। उत्तराखंड में समुद्रतल से 2900 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर सफेद बुरांस खिलता है।
देहरादून, केदार दत्त। सुर्ख बुरांस के बारे में तो सभी जानते हैं, मगर क्या आपको सफेद बुरांस के बारे में भी पता है। नहीं, तो चलिये आपको इससे रूबरू कराते हैं। उत्तराखंड में समुद्रतल से 2900 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर उच्च हिमालयी क्षेत्र में खिलता है सफेद बुरांस (रोडोडेंड्रॉन कैम्पेनुलेटम)। स्थानीय लोग इसे चिमुल, रातपा जैसे नामों से जानते हैं।
छह महीने बर्फ में ढके रहने पर मार्च आखिर से बर्फ पिघलनी शुरू होती तो इसके तने बाहर निकलते हैं और इन पर खिलते हैं सफेद फूल। ये आठ से 10 दिन की अवधि तक खिले रहते हैं। वर्तमान में भी सफेद बुरांस के फूल उच्च हिमालयी क्षेत्र में रंगत बिखेरने लगे हैं। चमोली जिले के जोशीमठ क्षेत्र के सेलंग के जंगल में तो 1800 मीटर की ऊंचाई पर भी सफेद बुरांस देखा गया है। इसके पीछे वजह क्या है, ये शोध का विषय है और वन महकमा इसमें जुटा है।
सुर्ख बुरांस की रंगत
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में इन दिनों सुर्ख बुरांस की लालिमा अलग ही रंगत बिखेर रही है। समुद्रतल से 1500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पाए जाने वाले बुरांस (रोडोडेंड्रॉन) को उत्तराखंड के राज्य वृक्ष का दर्जा हासिल है। पहाड़ियां इन दिनों बुरांस पर खिले सुर्ख फूलों से लकदक हैं, जो बरबस ही ध्यान खींचते हैं। यही वजह है कि रचनाकारों ने बुरांस को रचनाओं में भरपूर तवज्जो दी है।
इसके फूल औषधीय गुणों से भरपूर हैं, जिनका इस्तेमाल सदियों से दवाइयों में हो रहा। बुरांस के फूलों का जूस हृदय रोगियों के लिए गुणकारी माना गया है। इसके अलावा चटनी समेत अन्य उत्पाद भी इनसे बनते हैं तो लकड़ी का उपयोग कृषि उपकरण बनाने में होता है। जलस्रोत सहेजने में भी बुरांस की महत्वपूर्ण भूमिका है। बुरांस के औषधीय गुण उसके अनियंत्रित दोहन की वजह भी बन रहे हैं। लिहाजा, इस पर ध्यान देने की जरूरत है।
जड़ी-बूटी का विपुल भंडार
जैवविविधता के लिए मशहूर 71 फीसद वन भूभाग वाला उत्तराखंड जड़ी-बूटियों का विपुल भंडार है। कुदरत के इस खजाने में संजीवनी जैसी जड़ी-बूटियां विद्यमान हैं। सदियों से आयुर्वेद में इनका उपयोग हो रहा है। बावजूद इसके जड़ी-बूटियां यहां की आर्थिकी का बड़ा स्रोत नहीं बन पाई हैं।
अलबत्ता, जड़ी-बूटियों की तस्करी की बातें अक्सर सामने आती रहती हैं। अनियंत्रित दोहन का नतीजा है कि तमाम जड़ी-बूटियों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है और ऐसी 250 के लगभग प्रजातियां चिह्नित की जा चुकी हैं। साफ है कि आर्थिक दृष्टिकोण से नीति-निर्धारकों ने ठोस पहल नहीं की।
ऐसा नहीं कि जड़ी-बूटी विदोहन की नीति न हो। नीतियां हैं, मगर एकीकृत होने की बजाए इनमें बिखराव की स्थिति है। इसी का फायदा तस्कर उठाते आए हैं। जाहिर है कि जड़ी-बूटियों के संरक्षण के साथ ही नियंत्रित दोहन के दृष्टिगत समग्र नीति तैयार कर इसे धरातल पर उतारने की आवश्यकता है।
हिस्सेदारी देने में आनाकानी
उत्तराखंड में तमाम कंपनियां और संस्थाएं यहां के जैव संसाधनों का व्यावसायिक इस्तेमाल कर रही हैं, मगर स्थानीय समुदाय को लाभांश में से हिस्सेदारी देने में वे आनाकानी कर रही हैं। दरअसल, उत्तराखंड में जैव विविधता अधिनियम लागू है।
इसमें स्पष्ट प्रविधान है कि यहां के जैव संसाधनों का व्यावसायिक उपयोग करने वाली कंपनियां, संस्थाएं, व्यक्ति अपने सालाना लाभांश में से आधे से लेकर पांच फीसद तक की हिस्सेदारी स्थानीय ग्रामीणों के लिए देंगे। यह राशि उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के माध्यम से ग्राम स्तर पर बनी जैव विविधता प्रबंधन समितियों (बीएमसी) तक पहुंचेगी, ताकि वे जैव संसाधनों का संरक्षण कर सकें।
कसरत हुई तो पता चला कि राज्य में 1256 कंपनियां व संस्थाएं जैव संसाधनों का व्यावसायिक इस्तेमाल कर रहीं, मगर तमाम प्रयासों के बाद भी इनमें से करीब सौ के लगभग ही लाभांश से हिस्सेदारी दे रही हैं। हालांकि, अब इस मुहिम में तेजी लाने की तैयारी है।
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