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पर्यावरणविद् डॉ. अनिल प्रकाश जोशी बोले, संस्कारों से ही आती है सामाजिक प्रतिबद्धता

पर्यावरणविद् डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि आज की सभ्यता अधिकार सिखाती है पर दायित्वों से दूर कर देती है। समय आ चुका है कि सभ्यता व संस्कृति में अंतर समझें।

By Sunil NegiEdited By: Published: Fri, 10 Apr 2020 02:16 PM (IST)Updated: Fri, 10 Apr 2020 10:14 PM (IST)
पर्यावरणविद् डॉ. अनिल प्रकाश जोशी बोले, संस्कारों से ही आती है सामाजिक प्रतिबद्धता
पर्यावरणविद् डॉ. अनिल प्रकाश जोशी बोले, संस्कारों से ही आती है सामाजिक प्रतिबद्धता

देहरादून, जेएनएन। पर्यावरणविद् डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि ऐसा लगता ही नहीं कि हम इस महामारी से कुछ सीख रहे हैं। हम तो बस लॉकडाउन की अवधि के खत्म होने के इंतजार में समय काट रहे हैं। अगर ऐसा नहीं था तो पुलिस को इसके पालन के लिए इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। डांट से लेकर डंडों तक सब झेलेंगे पर एक राउंड बाजार जाना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि डर नहीं होगा, पर क्योंकि झेला नहीं, इसलिए कल्पना भी नहीं कर सकते। इनमें युवा वर्ग ही ज्यादा है, पर बड़े-बूढ़े भी मौका देखकर चुस्ती दिखा ही दे रहे हैं। असल में हमने दुनिया इतनी चमकदार बना दी और इसकी आदत सब पर इस तरह गढ़ दी कि इसके बिना अब जीना संभव नहीं

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ये वैसी ही लत है, जो जर्दे से लगती है। कैंसर का डर जर्दे की आदत के आगे पिट गया। इसका कारण यह है कि हमने एक लंबे समय से संस्कारों को खोना शुरू कर दिया था। आज ये क्या बड़े और क्या छोटे, सबसे गायब हो गए। हर कोई अपने-अपने तरीके से जीना चाहता है। 

यहां तक कि अब तो बड़े-बुजुर्ग भी इसके पक्ष में नहीं हैं। संस्कार बड़ों से छोटों में आते थे, पर अब अपने देश मे भी ये हवा जोरों पर है। स्वतंत्रता तब घातक होती है, जब समझ न हो और ये कल्चर भी पश्चिम की ही देन है। वहां बच्चे किंडरगार्टन में बढ़ते-पलते हैं और बुढ़ापा कम्युनिटी सेंटर में कटता है। इसीलिए वो समाज स्वयं केंद्रित रहा और वहां संवेदनशीलता दो आंसुओं में निपट जाती है।

हमारी आज की पीढ़ी उसी तरह की तैयारी में है। हमसे दूर जाती ये पीढ़ी कैसे भारत को जन्म देगी, इसकी कल्पना समय रहते कर लेंगे तो ठीक रहेगा। वरना दोष हमारा ज्यादा माना जायेगा। ये बात कोरोना कहर के विश्लेषणों से ही पता चल सकेगी। विदेशों में वृद्धजन जब आज अकेले से पड़ गए और ज्यादा परलोक भी पहुंच गए। कम्युनिटी सेंटर में दवा तो मिल गई पर दुआ व दया का अभाव भी था। आज सामाजिक विश्लेषण की भी जरूरत है। ऐसे कहर में सामाजिक प्रतिबद्धता संस्कारों से ही आती है। वो भी आज शून्य है।

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आज की सभ्यता अधिकार सिखाती है, पर दायित्वों से दूर कर देती है। आज सारे देश में ऐसी ही परिस्थितियां दिखाई दे रही हैं। इसलिए समय आ चुका है कि सभ्यता व संस्कृति में अंतर समझें। मतलब कोरोना आज की सभ्यता की देन है और उससे हमें हमारी संस्कृति ही बचा पाएगी। नमस्ते इंडिया या फिर भारतीय मूल जीवन शैली इसके सशक्त उदाहरण हैं।

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