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राजनीति की जमीन पर बिछार्इ अतिक्रमण की बिसात, पढ़िए पूरी खबर

शहर के विकास के अहम मुद्दे हाशिये पर हैं और सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक सभी अतिक्रमण को पनाह देने का श्रेय लूटने को एक कतार में खड़े नजर आ रहे हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sun, 11 Nov 2018 05:01 PM (IST)Updated: Sun, 11 Nov 2018 08:50 PM (IST)
राजनीति की जमीन पर बिछार्इ अतिक्रमण की बिसात, पढ़िए पूरी खबर
राजनीति की जमीन पर बिछार्इ अतिक्रमण की बिसात, पढ़िए पूरी खबर

देहरादून, [सुमन सेमवाल]: राज्य गठन के बाद दून ने 18 साल का सफर तय कर लिया है और यह शहर का चौथा निकाय चुनाव है। पिछले तीन चुनाव की बात करें तो राजनीति की जमीन पर अतिक्रमण की बिसात बिछाई जाती रही। क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, हर किसी ने नदी-नालों और सरकारी भूमि पर वोट बैंक की मन-माफिक फसल उगाई। यह चुनाव भी कहीं न कहीं अतिक्रमण को केंद्र में रखकर लड़ा जा रहा है। शहर के विकास के अहम मुद्दे हाशिये पर हैं और सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक सभी अतिक्रमण को पनाह देने का श्रेय लूटने को एक कतार में खड़े नजर आ रहे हैं। इस राजनीतिक संरक्षण से ही वर्ष 2007-08 के सर्वे में अतिक्रमण का जो आंकड़ा 11 हजार को पार कर गया था, उसके आज 22 हजार तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया है। 

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यह कब्जे नगर निगम की भूमि से लेकर सिंचाई विभाग के अधीन नदी-नालों और प्रशासन की भूमि पर किए गए हैं। इस बात को कहने में भी कोई गुरेज नहीं कि भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के नेताओं ने समान रूप से अपनी शह पर न सिर्फ सरकारी जमीनों पर कब्जे कराए, बल्कि उन्हें संरक्षण भी दिया। नगर निगम की ही बात करें तो राज्य गठन के समय निगम के पास 780 हेक्टेयर से अधिक की भूमि थी, जो आज 250 हेक्टेयर से भी कम रह गई है। रिस्पना-बिंदाल नदी, जिसकी चौड़ाई कभी 100 मीटर से भी अधिक हुआ करती थी, वह आज 20-25 मीटर चौड़े नाले में तब्दील हो गई है। जबकि दर्जनों नालों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया है और उन पर भवन खड़े हो चुके हैं। 

कार्रवाई के नाम पर निगम के हाथ खड़े 

करीब एक साल पहले नगर निगम से एक व्यक्ति ने आरटीआइ में जानकारी मांगी थी कि नगर निगम की जिन जमीनों पर कब्जे किए गए हैं, उन पर क्या कार्रवाई की गई है। हालांकि, आशंका के अनुरूप नगर निगम ने इसका जवाब नहीं दिया और जब यह मामला सूचना आयोग पहुंचा, तब जाकर पता चला कि निगम ने अवैध कब्जेदारों पर कोई कार्रवाई नहीं की है। निगम के लोक सूचनाधिकारी ने आयोग को बताया कि जवाब में सूचना शून्य बताई गई थी, जिसका मतलब हुआ कि कार्रवाई की ही नहीं गई है। 

150 से अधिक मुकदमे, पैरवी पर ध्यान नहीं 

वैसे तो निगम की करीब 540 हेक्टेयर भूमि पर कब्जे किए गए हैं, फिर भी चंद मामलों में निगम ने कार्रवाई का साहस दिखाया। ये प्रकरण में करीब 150 मुकदमों के रूप में न्यायालयों में लंबित है। गंभीर यह कि निगम प्रशासन इन कब्जों को छुड़ाने के लिए कोर्ट में प्रभावी पैरवी भी नहीं कर पाता है। हवाला दिया जाता है कि वकीलों के पैनल का मानदेय कम है। जबकि इसके पीछे की सच्चाई सभी को मालूम है कि जिन नेताओं को जनता चुनती है, वह शहर के बड़े वर्ग को दरकिनार कर सिर्फ अतिक्रमणकारियों को शह देने में अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं। इसी रवैये का नतीजा है कि दून में अतिक्रमणकारियों के हौसले हमेशा बुलंद रहते हैं। जिसका खामियाजा पूरे शहर को भुगतना पड़ता है। एक दफा शहर के 22 हिस्सों में अवैध कब्जों को लेकर मुख्यमंत्री को शिकायत भी भेजी गई थी। जिसका गोलमोल जवाब तत्कालीन महापौर विनोद चमोली की तरफ से मुख्यमंत्री को देकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 

कब्जों पर यह दिए गए थे तर्क 

-ब्रह्मावाला खाला में निगम की 72 बीघा जमीन पर कब्जा है, जो वर्ष 2000 से पहले का है। कांग्रेसी नेता अतिक्रमण को तोडऩे नहीं दे रहे। 

-साईं मंदिर के ट्रस्टी ने निगम की भूमि पर कब्जा कर कमरे बना दिए हैं। निगम अब इनका किराया वसूल कर रहा है। 

-राजपुर रोड पर ओशो होटल के पीछे की जमीन नॉन जेडए की है, नगर निगम का उस पर हस्तक्षेप नहीं। 

- विजय पार्क में निगम की भूमि पर कब्जे को लेकर संबंधित के खिलाफ मुकदमा दर्ज है, यह कब्जा वर्ष 1989 का बताया जा रहा है। 

-राजपुर रोड पर जसवंत मॉर्डन स्कूल के पीछे की जमीन भी नॉन जेडए की है। 

-दौलत राम ट्रस्ट की भूमि नगर निगम के नाम दर्ज नहीं है, इसके अधिग्रहण का अधिकार जिला प्रशासन के पास है। 

-अनुराग नर्सरी चौक पर एक कॉम्पलेक्स निगम की जमीन पर बनाया गया है, जिसे हटाना प्रस्तावित है। 

-हाथीबड़कला में एक अपार्टमेंट का निर्माण अवैध रूप से निगम की भूमि पर किया गया है, इसे भी हटाया जाना प्रस्तावित है। 

-रिस्पना पुल के पास एक व्यक्ति का निर्माण ग्रामसभा के समय का है। 

-पटेलनगर थाने के पीछे निगम की मजीन पर कब्जे को लेकर मामला हाई कोर्ट में लंबित है। 

-पटेलनगर क्षेत्र में लालपुल के पास बिंदाल नदी किनारे की बस्ती वर्ष 1984-89 के बीच बसी थी। इस भूमि पर बागडिय़ा समुदाय के कुछ ही लोग रह रहे हैं। 

माननीय ही विकास में रोड़ा, बीएसयूपी योजना पर लगाया ब्रेक 

जिन माननीयों पर शहर के विकास की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही वोट बैंक की खातिर इस पर पलीता लगाने से भी गुरेज नहीं किया। कुछ साल पहले सरकारी जमीन पर अवैध रूप से काबिज लोगों को वहां से हटाकर उन्हें फ्लैट में शिफ्ट करने के लिए बेसिक सर्विस फॉर अर्बन पूअर्स (बीएसयूपी) योजना पर काम शुरू किया गया था। आठ अलग-अलग क्षेत्रों में 1138 फ्लैट का निर्माण किया जाना था, इनमें से 201 फ्लैट का निर्माण भी किया जा चुका था।

हालांकि इससे पहले कि लोगों को फ्लैट में शिफ्ट किया जाता कांग्रेस सरकार के तत्कालीन काबीना मंत्री और वर्तमान में महापौर पद के प्रत्याशी दिनेश अग्रवाल समेत कुछ अन्य नेताओं ने इसका अकारण ही विरोध शुरू कर दिया। विरोध के पीछे सरकारी भूमि पर काबिज लोगों की फ्लैट को लेकर नापसंदगी बताई गई, जबकि हकीकत में उन्हीं नेताओं को डर था कि उनके क्षेत्र का बड़ा वोट बैंक अन्य क्षेत्रों में निर्मित फ्लैट में शिफ्ट हो जाएगा। इसके बाद जब रिवर फ्रंट डेवलपमेंट योजना के तहत एमडीडीए ने रिस्पना व बिंदाल नदी किनारे अवैध रूप से काबिज लोगों को हटाने का सर्वे किया तो तत्कालीन महापौर व धर्मपुर क्षेत्र के विधायक विनोद चमोली ने सर्वे पर सवाल उठाकर मामले को खटाई में डाल दिया। इसके बाद यह परियोजना महज एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में सिमटकर रह गई।   

बीएसयूपी परियोजना पर एक नजर 

स्थान, प्रस्तावित फ्लैट, बने फ्लैट 

ब्रह्मपुरी-एक, 240, 56 

ब्रह्मपुरी-दो, 421, शून्य 

काठबंगला, 148, 56 

खाला बस्ती, 80, शून्य 

राम मंदिर कुष्ठ आश्रम, 27, 27 

शांति कुष्ठ आश्रम, 28, 28 

रोटरी कुष्ठ आश्रम, 34, 34 

चकशाह नगर, 160, शून्य 

कोर्ट के डर से हटाया सड़कों से अतिक्रमण 

राज्य गठन के बाद दून की आबादी तेजी से बढऩे लगी तो आवासीय भवनों से लेकर व्यापारिक प्रतिष्ठान और वाहनों की संख्या में भी इजाफा होने लगा। हालांकि, इस सब के बाद सड़कों की चौड़ाई बढऩे की जगह उनका आकार और घटने लगा। राजनीतिक संरक्षण के चलते लोगों ने सड़कों की भूमि पर ही कब्जा जमा लिया। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जब भी सड़कों से अतिक्रमण हटाने की कवायद शुरू की गई, उसके पीछे सरकार की इच्छाशक्ति की जगह कोर्ट का आदेश वजह बना। हालांकि, अतिक्रमण हटाने के कुछ समय बाद भी हालात पहले जैसे होने लगते हैं।

यही वजह रही कि इस दफा हाई कोर्ट को और कड़ा निर्णय देना पड़ा और अधिकारियों की सीधी जिम्मेदारी तय की गई। इसका असर दिखा भी और बड़े पैमाने पर सड़कों पर से अतिक्रमण हटाए जा सके। हालांकि प्रेमनगर व कुछ अन्य इलाकों में देखा गया कि नेतागण ही अतिक्रमण अभियान के खिलाफ खड़े होने लगे। इसके अलावा सरकारी अधिकारियों ने भी विभिन्न कारणों से अभियान की रफ्तार पर भी ब्रेक लगाना शुरू कर दिया और निकाय चुनाव के नाम पर फिलहाल पूरा अभियान ठंडे बस्ते में चला गया है।

जबकि कई स्थानों पर दोबारा से अतिक्रमण किए जाने की बात भी सामने आ रही है। इसी कड़ी में जिस मॉडल रोड से पिछले साल अतिक्रमण हटाकर नए फुटपाथ बनाए गए थे, वह फिर कब्जे की जद में आ गए हैं। जबकि राज्य सरकार ने तब अपने इरादे स्पष्ट करते हुए कहा था कि किसी भी सूरत में इन पर दोबारा अतिक्रमण नहीं होने दिया जाएगा। 

अध्यादेश पर एक सुर में भाजपा-कांग्रेस 

हाई कोर्ट ने सड़कों पर से अतिक्रमण हटाने के अलावा सरकारी भूमि पर किए गए अवैध कब्जों को हटाने के भी आदेश जारी किए थे। सरकार को तभी से डर सताने लगा था कि ऐसे में मलिन बस्तियों पर बड़े पैमाने पर कार्रवाई करनी होगी और इससे वोट बैंक का गणित गड़बड़ा सकता है। लिहाजा, अध्यादेश लाया गया कि तीन साल तक मलिन बस्तियों को उजाड़ा नहीं जाएगा। सरकार के हर फैसले का विरोध करने पर उतारू रहने वाला विपक्ष इस दफा खामोश रहकर उसका समर्थन करता दिखा। इसी तरह सिंचाई विभाग की नहरों व नालों पर कब्जा कर बैठे बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बचाने के लिए भी प्रकरण को शासन को संदर्भित कर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कुछ ऐसी ही कवायद काठबंगले के अतिक्रमण पर भी की गई।

निगम की पानी की टंकियां तक गायब 

देहरादून नगर निगम ने अपने ही हाथों से न सिर्फ बेशकीमती जमीनों को लुटा दिया, बल्कि उन 52 पानी की टंकियों का भी अब अस्तित्व नजर नहीं आता, जो एक से लेकर 12 बिस्वा तक की भूमि पर बनाई गई थीं। यह टंकियां बड़े जलाशयों के रूप में भी थीं। जबकि आज अधिकतर टंकियों की भूमि को खुर्द-बुर्द कर दिया गया है। गढ़ी कैंट रोड पर सर्वे ऑफ इंडिया के कार्यालय के पास ही एक बड़े आकार का टैंक हुआ करता था, जिसकी भूमि को एक बिल्डर ने कब्जा लिया और उसके नल को अपनी आवासीय परियोजना की चहारदीवारी के बाहर स्थापित करा दिया।

इसी तरह मोती बाजार में भी एक टंकी 10 बिस्वा भूमि पर बनी थी, आज इसकी जगह एक दो मंजिला व्यापारिक प्रतिष्ठान नजर आता है। अन्य स्थानों पर बनाई गई टंकियों का भी कुछ ऐसा ही हाल है। यह सब कुछ एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि नेतागणों के संरक्षण के चलते टंकियों की भूमि तक कब्जा ली गई है और कहीं कोई शोर भी नजर नहीं आया। यह स्थिति बताती है कि दून को किस दिशा में आगे बढ़ाया जा रहा है। 

किस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते आ रहे नेता 

नदी-नालों और सरकारी भूमि पर वोट बैंक की जो फसल उगाई जा रही है, उनकी आबादी 15 फीसद से अधिक नहीं है। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी उठता है कि हमारे नेता उन लोगों के हितों की कैसे अनदेखी कर सकते हैं, जिनकी आबादी करीब 85 फीसद है। हालांकि, इस सबके लिए वह जगारूक वर्ग भी जिम्मेदार है, जो मतदान करने में उस वर्ग से पीछे रहता है, जो अतिक्रमणकारी हैं। ऐसे मतदाता अपने संरक्षणदाताओं के इशारे पर बड़ी संख्या में वोट डालते हैं और जिस वर्ग से शहर की बेहतरी की उम्मीद की जाती है, वह मतदान वाले दिवस को अवकाश से अधिक तव्वजो नहीं देता है। हमारे नेता भी इस बात को जान चुके हैं और इसी कारण उनके विकास का पैमाना मलिन बस्ती फैक्टर के इर्द-गिर्द घूमता है। 

अतिक्रमण पर मतदाता और प्रत्याशियों के मत जुदा 

अतिक्रमण पर जागरूक मतदाताओं का स्पष्ट कहना है कि किसी भी सूरत में नदी-नालों, सरकारी भूमि पर सड़कों पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। जबकि दूसरी तरफ महापौर पद के प्रत्याशियों का कहना है कि नदी-नालों पर अवैध रूप से बने भवनों का संरक्षण किए जाने की जरूरत है। यह विरोधाभास इस बात की तरफ भी इशारा करता है कि जागरूक वर्ग कैसा शहर चाहता है और हमारे नेता किस तरह के विकास की बात कर रहे हैं। 

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