पंचायत प्रतिनिधियों के लिए फांस बना एक्ट का प्रविधान, सीएम दरबार पहुंचा मामला
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-नौ (क) का फंदा कसने से ये प्रतिनिधि पंचायतों में ठेकेदारी निर्माण कार्य और व्यवसाय करने से वंचित हो गए हैं।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में उठे एक कदम ने त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के जनप्रतिनिधियों को हिलाकर रखा है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-नौ (क) का फंदा कसने से ये प्रतिनिधि पंचायतों में ठेकेदारी, निर्माण कार्य और व्यवसाय करने से वंचित हो गए हैं। इस प्रविधान को हटाने के लिए अब पंचायतों के प्रतिनिधि एकजुट नजर आ रहे हैं। विधायक भी इनके समर्थन में आगे आकर पैरोकारी कर रहे हैं। मामला अब मुख्यमंत्री दरबार तक पहुंच गया है। प्रदेश सरकार की ओर से पंचायत प्रतिनिधियों की मांग पर सकारात्मक तरीके से विचार करने के संकेत हैं।
दरअसल उत्तराखंड पंचायतीराज अधिनियम-2016 की धारा 30, 69 और 107 में त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों को लोक सेवक की श्रेणी में रखा गया है। पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में बनाए गए इस अधिनियम में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा-9(क) जोड़ी गई। इसके मुताबिक सरकार के संविदा के लिए पंचायत में निर्वाचन के लिए अयोग्य माना गया है। इस प्रविधान ने पंचायत प्रतिनिधियों को विभिन्न कार्यों के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। इससे उन्हें काम करने में कठिनाई भी पेश आ रही है।
संशोधन को लेकर लामंबद
ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों के तमाम संगठन ये प्रविधान को हटाने के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। जिला पंचायत सदस्य संगठन के प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप भट्ट ने उत्तराखंड पंचायती राज अधिनियम 2016 में संशोधन की मांग की है उन्होंने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को पत्र लिखा है। पत्र में उन्होंने कहा कि पंचायतीराज अधिनियम में पंचायत प्रतिनिधियों को लोक सेवक माना है। सांसदों और विधायकों भी पंचायत प्रतिनिधियों की भांति लोक सेवक हैं, लेकिन दोनों की सुविधाओं और वेतन के मामले में जमीन और आसमान का अंतर है।
उन्होंने कहा कि मासिक मानदेय ग्राम प्रधान को 1500 रुपये, उप प्रधान को 500 रुपये, जिला पंचायत अध्यक्ष को 10000 मासिक, जिला पंचायत उपाध्यक्ष को 5000 मासिक, जिला पंचायत सदस्य को 1000 प्रति बैठक, ब्लॉक प्रमुख को 6000 मासिक, उप प्रमुख को 1500 रुपये और क्षेत्र पंचायत सदस्य को प्रति बैठक 500 रुपये मानदेय के रूप में दिया जाता है। वहीं, सांसद और विधायकों को लाखों रुपये वेतन-भत्ते के रूप में मिलते हैं। उन्होंने कहा कि पंचायत प्रतिनिधियों को सांसदों और विधायकों की भांति वेतन-भत्ते दिए जाएं, अन्यथा पंचायती राज अधिनियम में संशोधन कर पंचायत प्रतिनिधियों को अपना व्यवसाय करने के लिए आवश्यक कानूनी प्रविधान किया जाए।
पंचायतों के खिलाफ बताया साजिश
क्षेत्र पंचायत संगठन उत्तराखंड के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र सिंह राणा ने कहा कि त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों को पंचायतीराज अधिनियम में लोक सेवक की श्रेणी में जोड़कर त्रिस्तरीय पंचायतों को कमजोर करने की साजिश की गई है। यह सांसदों और विधायकों के संदर्भ में ही न्यायोचित है। मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में उन्होंने अधिनियम में संशोधन की पैरवी की। साथ में कहा कि त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों को उनकी ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के अंतर्गत ही लोक सेवक समझा जाना चाहिए।
भाजपा विधायक पैरवी में उतरे
पंचायत प्रतिनिधियों के समर्थन में भाजपा के विधायकों विधायक दिलीप रावत (लैंसडौन), धन सिंह नेगी (टिहरी) व मुकेश कोली (पौड़ी)ने भी मुख्यमंत्री से मुलाकात की। उन्होंने भी पंचायतीराज अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि पंचायत प्रतिनिधि ठेकेदारी, निर्माण कार्य, व्यवसाय आदि के जरिये अपने भरण-पोषण के साथ ही पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, लेकिन इन प्रविधानों के कारण उनके सामने असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। उन्हें कार्य करने में कठिनाई पेश आ रही हैं।
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मुख्य सचिव करेंगे परीक्षण
पंचायत प्रतिनिधियों और विधायकों के इस मांग को लेकर एकजुट होने से पंचायतीराज अधिनियम में संशोधन को लेकर हलचल तेज हो गई है। मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव को इस मामले का परीक्षण कराने के निर्देश दिए। साथ ही कहा कि जरूरत पड़ने पर सरकार पंचायतीराज अधिनियम में संशोधन करेगी। इसके लिए विधानसभा के मानसून सत्र में संशोधन विधेयक लाया जा सकता है। दरअसल प्रदेश की भाजपा सरकार इस वक्त प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में है। प्रदेश की सियासत में सरकार अपना ऐसा ही दबदबा आगे भी कायम रखने के पक्ष में है। लिहाजा पंचायत प्रतिनिधियों की समस्या के समाधान के संकेत दिए गए हैं।
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