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धनतेरस के साथ शुरू हो जाता है दीपोत्सव, जीवन में भरता है सुख-समृद्धि के रंग

दीपोत्सव सनातनी संस्कृति को जीवंत रखता है। ये पर्व धनतेरस के साथ शुरू हो जाता है। जो भैया दूज तक चलता है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sun, 04 Nov 2018 05:10 PM (IST)Updated: Mon, 05 Nov 2018 08:25 AM (IST)
धनतेरस के साथ शुरू हो जाता है दीपोत्सव, जीवन में भरता है सुख-समृद्धि के रंग
धनतेरस के साथ शुरू हो जाता है दीपोत्सव, जीवन में भरता है सुख-समृद्धि के रंग

देहरादून, [जेएनएन]: सनातनी संस्कृति में पर्व-त्योहारों की वही अहमियत है, जो जीवन में हवा और पानी की। पर्व-त्योहार हमारे ऐसे सनातनी उपक्रम हैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना का भाव भी जगाते हैं। दीपावली (बग्वाल) ऐसा ही मौका है, जो संपूर्ण मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। आज हम आपको रूबरू कराएंगे दीपावली के इसी पारंपरिक, सांस्कृतिक और लोक कल्याणकारी स्वरूप से करा रहे हैं। 

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दीपावली यानी दीपों का उत्सव उल्लास एवं उमंग का ही प्रतीक नहीं, समृद्धि एवं खुशहाली का सूचक भी है। जब आत्मा में ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित होने लगे, समझो जीवन में दीपावली का प्रवेश हो गया है। इसमें भौतिक सुखों की लालसा भी है तो आध्यात्मिकता में डूब जाने की उत्कंठा भी। कहने का तात्पर्य समस्त संसारिक भाव इसमें समाए हुए हैं। इसीलिए ज्योति पर्व का आरंभ धनतेरस होता है तो परिणति भैया दूज के रूप में। देखा जाए तो ज्योतिपर्व त्योहार मात्र न होकर त्योहारों का भरा-पूरा समूह है। 

शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दीपावली का पूजन धनतेरस से शुरू हो जाता है। यह ऐसा दिन है जब घर में किसी नई वस्तु का प्रवेश होता है। आशय यही है कि वर्षभर घर-परिवार में सुख, शांति एवं समृद्धि को स्थायित्व मिले और तन की निर्मलता एवं मन की पवित्रता बनी रहे। उत्तराखंड पर्वतीय अंचल में इस दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा की जाती है। 

इसके उपरांत ही घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। धनतेरस के बाद आती है नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली। सही मायने में यह मां लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा का दिन है, इसलिए इस दिन घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा की जाती है। आप मां लक्ष्मी की आगवानी को तैयार हैं, तो वह आएंगी ही। इसीलिए यह छोटी बग्वाल है, जो बड़ी बग्वाल यानी दीपावली के स्वागत में मनाई जाती है। दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा और भैयादूज का पर्व आता है।  

जीवन में स्वच्छता का भाव जगाता ज्योति पर्व 

घोर निराशा के इस दौर में जब सामाजिक मान्यताएं भरभराकर ढह रही हैं, तब तीज-त्योहार ही हैं, जो काफी हद तक इन्हें बचा पाने में सफल रहे हैं। यही ऐसे सनातनी उपक्रम हैं, जो हमें एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका तो देते ही हैं, समाज के प्रति संवेदना भी जगाते हैं। शायद इसी वजह से त्योहार भारतीय जीवन पद्धति में गहरे से रचे-बसे हैं। हम समाज की खुशियों में कैसे शामिल हों, इसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन तो होना ही चाहिए। दीपावली ऐसा ही मौका है, जो पूरे मानव समाज को उल्लास में डूबने का मौका देता है। दीपावली की तैयारियां शारदीय नवरात्र के साथ ही शुरू हो जाती हैं। 

नवरात्र जहां प्रकृति एवं उसकी रचनाओं के प्रति सम्मान का बोध कराते हैं, वहीं दीपावली जीवन में स्वच्छता का भाव जगाती है। असल में इस पर्व की बाहरी चकाचौंध इसके भीतर छिपे दर्शन को ही प्रकाशित करती है। तन की निर्मलता, मन की पवित्रता और परिवेश की स्वच्छता का असल मकसद विचारों का प्रवाह समाज की उन्नति की ओर मोड़ना ही है। परिवेश की सफाई से आरंभ होने वाला यह त्योहार पराकाष्ठा पर पहुंचते-पहुंचते भाई-बहन के स्नेह का प्रतिरूप बन जाता है। महालक्ष्मी का पूजन इसका मुख्य सोपान है, लेकिन लक्ष्मी की कृपा तभी बरसती है, जब इसके पीछे मानव के कल्याण और प्रकृति के संरक्षण का भाव निहित हो। भारतीय संस्कृति का असली स्वरूप भी यही है। 

दीपावली के शुभ मुहूर्त 

'ब्रह्मपुराण' के अनुसार आधी रात तक रहने वाली अमावस्या तिथि ही महालक्ष्मी पूजन के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। जब अमावस्या आधी रात तक नहीं होती, तब प्रदोष व्यापिनी तिथि लेनी चाहिए। लक्ष्मी पूजन व दीप-दानादि के लिए प्रदोषकाल ही विशेष शुभ माने गए हैं। 

धनतेरस: 5 नवंबर 

प्रदोष काल : 5.33 से 8.10 बजे तक 

वृषभ काल : 6.07 से 8.03 बजे तक 

नरक चतुर्दशी : 6 नवंबर 

मुहूर्त : अभ्यंग स्नान समय 4.59  से 6.36 बजे तक 

अमावस्या (दीपावली): 7 नवंबर 

प्रदोष काल: सात नवंबर शाम 5.30 से 8.11 बजे तक प्रदोष काल रहेगा। प्रदोष काल को लक्ष्मी पूजन के लिए शुभ मुहूर्त के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रदोष काल में भी स्थिर लग्न का समय सबसे उत्तम माना गया है। इस दिन 5.59 से 7.53 बजे तक वृष लग्न रहेगा। प्रदोष काल व स्थिर लग्न दोनों रहने से यह सर्वोत्तम मुहूर्त है। 

निशीथ काल: सात नवंबर को शाम 8.11 से 10.51 बजे तक निशीथ काल रहेगा। इस दौरान 7.10 से 8.51 तक की शुभ और उसके बाद अमृत की चौघडिय़ा रहेगी। व्यापारी वर्ग के लिए यह लक्ष्मी पूजन का उत्तम समय है। 

महानिशीथ काल: सात नवंबर को रात 10.51 से 1.31 बजे तक महानिशीथ काल रहेगा। महानिशीथ काल में कर्क व सिंह लग्न होने के कारण यह समय और शुभ हो गया है। जो लोग शास्त्रों के अनुसार दीपावली पूजन करना चाहते हैं, उन्हें इस समयावधि को पूजा के लिए प्रयोग करना चाहिए।

गोवर्धन पूजा, प्रतिपदा : 8 नवंबर 

पूजा प्रात:काल मुहूर्त : 6.37 से 8.48 बजे तक 

सायंकाल मुहूर्त : 3.20 से 5.31 बजे तक 

भाई दूज, द्वितीया : 9 नवंबर 

तिलक का समय : 1.10 से 3.20 बजे तक

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