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चौसठ कलाओं में प्रमुख है नृत्य, जानिए लोकनृत्य से जुड़ीं कुछ खास बातें

लोक नृत्य को आम देहाती स्त्री-पुरुष लोकवाद्यों को सहारा लेकर करते हैं। यह वस्तुत प्राकृतिक नृत्य है। जो हर क्षेत्र के लोक जीवन में परिलक्षित होता है

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 07:14 PM (IST)Updated: Sat, 17 Nov 2018 07:14 PM (IST)
चौसठ कलाओं में प्रमुख है नृत्य, जानिए लोकनृत्य से जुड़ीं कुछ खास बातें
चौसठ कलाओं में प्रमुख है नृत्य, जानिए लोकनृत्य से जुड़ीं कुछ खास बातें

देहरादून, दिनेश कुकरेती। नृत्य एक ऐसी सार्वभौम कला है, जो मानव जीवन के साथ ही अस्तित्व में आ गई थी। नृत्य मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है, जिसमें करण, अहंकार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों का समावेश देखने को मिलता है। पाषाण जैसे कठोर एवं दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति को भी मोम सदृश पिघलाने की क्षमता इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। नृत्य मनोरंजक तो है ही, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का साधन भी है। अगर ऐसा न होता तो कला की यह धारा पुराणों व श्रुतियों से होते हुई धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। 

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यह कला देव, दानव, मनुष्य एवं पशु-पक्षियों को समान रूप से प्रिय है। इसीलिए भगवान शंकर को नटराज कहा गया। उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार का प्रतीक माना जाता है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण श्रीकृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे नटवर कहलाए। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता साबित होती है। 

अभिनीत गीत है लोक नृत्य

लोक नृत्य एक प्रकार का अभिनीत गीत है, जो सबके मन को मोह लेता है। इसमें हाव-भाव आदि के साथ जो शारीरिक गति दी जाती है, उसे ही नृत्य कहा गया है। जिसने इसे स्वीकारा और साधना से इसे सिद्ध किया, समझ लीजिए उसने जीवन का अमोध आनंद प्राप्त कर लिया।

चौसठ कलाओं में प्रमुख

यूं तो भारतीय शास्त्र में चौसठ कलाओं का जिक्र हुआ है, लेकिन नृत्य इनमें प्रमुख है। हालांकि 'शिव तत्व रत्नाकर' में उल्लिखित चौसठ कलाओं में नृत्य को यथोचित स्थान नहीं मिल पाया। श्रीमद् भागवत के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीधर स्वामी ने भागवत के दशम स्कंध में जिन कलाओं का उल्लेख किया है, उनमें नृत्य प्रमुख है। 

पुराकाल से ही जीवन का हिस्सा

भारत में पुराकाल से ही नृत्य की बड़ी मान्यता रही है। तब नृत्य की शिक्षा राजकुमारों तक के लिए अनिवार्य समझी जाती थी। पांडवों के अज्ञातवास काल में राजा विराट की पुत्री उत्तरा को अर्जुन का वृहन्नला रूप में नृत्य की शिक्षा देने का प्रसंग महाभारत में प्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में यह कला अब भी मौजूद है।

जीवन एवं प्रकृति से गहरा संबंध

लोक नृत्य को आम देहाती स्त्री-पुरुष लोकवाद्यों को सहारा लेकर करते हैं। यह वस्तुत: प्राकृतिक नृत्य है, जो हर क्षेत्र के लोक जीवन में परिलक्षित होता है। सभ्य से सभ्य कही जाने वाली जातियों में भी लोकमानस का अंश मौजूद रहता है। साधारण लोक नृत्य सामूहिक होते हैं। हालांकि, जीवन एवं प्रकृति से गहरे तक जुड़े होने के कारण लोकनृत्य का रूप वर्ग विशेष में अपने व्यवसाय के अनुकूल हो जाता है।

लोकनृत्य की विशेषताएं

-ये नृत्य 19वीं सदी या उससे भी पहले के हैं, जिनका कोई पेटेंट नहीं है।

-इन नृत्यों का ढंग पारंपरिक होता है। यह किसी व्यक्ति विशेष ने नवाचार से सृजित नहीं किए।

-इनमें नर्तक आम आदमी होता है, न कि समाज का कुलीन वर्ग।

-इन्हें नियंत्रित करने वाली कोई एक संस्था नहीं होती।

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