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चिंताजनक स्थिति में पहुंची वन्यजीव और मानव के बीच छिड़ी जंग

यहां वन्यजीवों और मानव के बीच छिड़ी जंग जो अब चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है। राज्य का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा होगा जहां जंगली जानवरों के खौफ ने नींद न उड़ाई हो।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 25 Jan 2020 10:04 AM (IST)Updated: Sat, 25 Jan 2020 08:42 PM (IST)
चिंताजनक स्थिति में पहुंची वन्यजीव और मानव के बीच छिड़ी जंग
चिंताजनक स्थिति में पहुंची वन्यजीव और मानव के बीच छिड़ी जंग

देहरादून, केदार दत्‍त। जैवविविधता के लिए मशहूर उत्तराखंड में फूल-फल रहा जंगली जानवरों का कुनबा उसे देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाता है, मगर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। वह है यहां वन्यजीवों और मानव के बीच छिड़ी जंग, जो अब चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है। पहाड़ से लेकर मैदान तक राज्य का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा होगा, जहां जंगली जानवरों के खौफ ने नींद न उड़ाई हो। और अब तो पानी सिर से ऊपर बहने लगा है। सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें तो उत्तराखंड के अस्तित्व में आने केबाद वर्ष 2000 से 2019 तक के वक्फे में गुलदार, हाथी, भालू, बाघ जैसे जानवरों के हमलों में 730 लोगों की जान जा चुकी है। घायलों की संख्या तो इससे कहीं अधिक है। इस अवधि में 3905 लोग वन्यजीवों के हमले में जख्मी हुए हैं। ऐसे में हर किसी की जुबां पर यही बात है कि आखिरकार यह संघर्ष कब थमेगा।

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कहां गया महाराष्ट्र मॉडल

एक दौर में मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर महाराष्ट्र में भी ठीक वैसी ही परिस्थितियां थीं, जैसी आज उत्तराखंड में हैं। खासकर, संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान से लगे क्षेत्रों में भी गुलदार के आतंक ने लोगों का जीना दुश्वार किया हुआ था। जुनार की तस्वीर कुछ ऐसी ही थी। कोशिशें हुई तो मानव और वन्यजीव संघर्ष को न्यून करने का तरीका ढूंढा गया।

सह अस्तित्व की भावना के मद्देनजर ऐसे कदम उठाए गए, जिससे मानव, गुलदार दोनों सुरक्षित रहें। इस पहल के सार्थक नतीजे सामने आए और इसे नाम दिया गया महाराष्ट्र मॉडल। उत्तराखंड में इसे धरातल पर उतारने की कवायद की गई। पहले चरण में गढ़वाल के कुछ क्षेत्र भी चिह्नित किए गए, मगर इसके अपेक्षित परिणाम जमीन पर नजर नहीं आए। ऐसे में सिस्टम की कार्यशैली पर भी सवाल उठना लाजिमी था। छीछालेदर के बाद अब फिर से महाराष्ट्र मॉडल को यहां आकार देने को मशक्कत चल रही है।

सिस्टम की सुस्त कार्यशैली

यह ठीक है कि किसी मसले के समाधान में वक्त लगता है, लेकिन यहां तो दो-चार साल नहीं, दो दशक गुजर चुके हैं और समस्या जस की तस है। मानव-वन्यजीव संघर्ष को थामने की दिशा में तस्वीर ऐसी ही है। ये स्थिति तब है, जबकि यह समस्या उत्तराखंड को विरासत में ही मिल गई थी। राज्य गठन के बाद इसे लेकर जुबानी बातें तो खूब हुईं, मगर फौरी तौर पर इक्का-दुक्का कदमों को छोड़ प्रभावी उपाय नहीं हुए।

साफ है कि सिस्टम की यह सुस्त चाल मानव-वन्यजीव संघर्ष के न्यूनीकरण की दिशा में भारी पड़ रही है। न महाराष्ट्र मॉडल धरातल पर उतरा और न वन्यजीवों को जंगल में ही रोकने के मद्देनजर सोलर पावर फैंसिंग, वन्यजीवरोधी बाड़ जैसे कदम उठाए गए। हालांकि, ग्राम स्तर पर वॉलेंटरी विलेज प्रोटेक्शन फोर्स और हर प्रभाग स्तर पर रैपिड रिस्पांस टीमों के गठन की कसरत चल रही, मगर इनकी रफ्तार भी सुस्त है।

ऐसे रहेंगे दोनों महफूज

बदली परिस्थितियों में 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिसमें मनुष्य और वन्यजीव दोनों ही महफूज रहें। जाहिर है कि जियो और जीने दो के सिद्धांत पर चलते हुए सह अस्तित्व की भावना को अपनाना होगा और वन्यजीवों के साथ रहना सीखना होगा। इसके लिए बदलना मनुष्य को ही होगा, क्योंकि वन्यजीव तो अपना स्वभाव बदल नहीं सकते।

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जंगली जानवर जंगल की देहरी पार न करें, इसके लिए जंगलों में बेहतर वासस्थल विकास पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। ये बात समझनी होगी कि वन्यजीव होंगे तो जंगल सुरक्षित रहेंगे। जंगल महफूज होंगे तो हवा-पानी भी दुरुस्त रहेगा। मानव व वन्यजीवों में टकराव रोकने के मद्देनजर महाराष्ट्र समेत देश के विभिन्न राज्यों में हुई पहल का अध्ययन कर ऐसे ही कदम यहां भी उठाए जाने आवश्यक हैं। हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों की एक से दूसरे जंगल में आवाजाही को रास्ते निर्बाध करने होंगे।

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