उत्तराखंड में उल्टी बह रही है उच्च शिक्षा की बयार, पढ़िए पूरी खबर
उत्तराखंड के उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम को आधुनिक व्यवस्था से हटाकर पुराने ढर्रे पर लाकर खड़ा कर दिया गया है।
देहरादून, अशोक केडियाल। भले ही मानव संसाधन विकास मंत्री नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को अधिक तर्कसंगत और ग्लोबल स्पर्धा की कसौटी पर कसने की तैयारी कर रहे हों, लेकिन उन्हीं के गृह राज्य में उच्च शिक्षा पटरी से उतरती नजर आ रही है। प्रदेश के उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम को आधुनिक व्यवस्था से हटाकर पुराने ढर्रे पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। देश के लगभग सभी राज्य स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में सेमेस्टर सिस्टम को आत्मसात कर रहे हैं, लेकिन उत्तराखंड में इस वर्ष से सरकारी कॉलेज में वार्षिक परीक्षा सिस्टम लागू कर दिया गया है। उच्च शिक्षा महकमे की जिम्मेदारी संभाल रहे 'मंत्री जी' का अपना ही तर्क है। वह कहते हैं कि जब सरकारी कॉलेजों में शिक्षक व आधारभूत सुविधाएं पर्याप्त होंगी, तब फिर से सेमेस्टर सिस्टम लागू कर देंगे। अब 'उनसे' कौन पूछे कि उच्च शिक्षा सरकार की प्रयोगशाला कैसे बन सकती है?
विरोध करने वाले भी समझ रहे...
सरकारी कॉलेजों में स्नातक स्तर पर सेमेस्टर सिस्टम खत्म कर वार्षिक परीक्षा लागू करने को कुछ छात्र संगठन अपनी जीत मान रहे हैं। पर प्रतिस्पर्धा के युग में प्रतियोगी परीक्षाओं में वह कैसे दूसरे राज्यों के छात्रों को टक्कर दे पाएंगे, इसे तो वह भी समझ रहे हैं। लेकिन उन्हें छात्र राजनीति भी तो चमकानी है। छात्र राजनीति सेे सफलता की सीढ़ी चढ़कर 'विधानसभा' तक पहुंचे मंत्री जी ने अपनों का मान रख फिलहाल के लिए पुरानी प्रणाली लागू कर दी। अब मंत्री जी इन्हीं छात्रों से यह भी अपेक्षा रख रहे हैं कि वह प्रतियोगिताओं की तैयारी खुद करें। ताकि उत्तराखंड देशभर में सबसे अधिक आइएएस, आइपीएस देने वाला राज्य बन जाए। मंत्री जी के 'नेक इरादे' जोश भरने वाले हैं, लेकिन हकीकत का सामना तो छात्रों को ही करना है।
अभी नहीं तो कभी नहीं
भले ही केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय सूबे के कद्दावर नेता संभाल रहे हों। प्रदेश में ऊर्जावान युवा उच्च शिक्षा राज्य मंत्री हों। केंद्र व प्रदेश में डबल इंजन की सरकारें हों। फिर भी हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विवि से जुड़े 17 अशासकीय महाविद्यालयों की संबद्धता का मसला न सुलझे, तो यही कहा जा सकता है कि 'अभी नहीं तो कभी नहीं'। एचएनबी गढ़वाल विवि के केंद्रीय विवि बनने के बाद से लगातार विवि और अशासकीय कॉलेजों के बीच संबद्धता को लेकर खींचतान चल रही है।
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विवि प्रशासन चाहता है कि संबद्ध अशासकीय कॉलेज विवि से असंबद्ध होकर कहीं और से संबद्धता लें, जबकि अशासकीय कॉलेजों का तर्क है कि उन्होंने कई दशक पहले एनएचबी गढ़वाल विवि का तब साथ दिया था। जब विवि को मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजी जाने वाली रिपोर्ट में संबद्ध कॉलेजों की अधिक संख्या की दरकार थी। इसलिए अशासकीय कॉलेज पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।
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विश्वविद्यालय जैसी विशाल चुनौती
श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय कहने को तो प्रदेश सरकार का सबसे बड़ा विवि है, लेकिन यहां चुनौतियां भी बड़ी-बड़ी हैं। विवि से संबद्ध सरकारी, अशासकीय और निजी कॉलजों की संख्या करीब पौने दो सौ है और विवि के पास वर्तमान में सिर्फ 54 नियमित व संविदा कर्मचारी हैं। एक लाख 15 हजार छात्र-छात्राएं और 35 के करीब कोर्सों की समय पर पढ़ाई, परीक्षा, मूल्यांकन व रिजल्ट घोषित करना आसान काम नहीं है। पूर्व के अनुभव इस बात के प्रमाण हैं कि विवि में प्रोफेशनल स्टाफ की सख्त दरकार है, क्योंकि पूर्व में प्रश्नपत्रों में गलतियों की भरमार से विवि प्रशासन की खूब खिंचाई हो चुकी है। सरकार को विवि से बड़ी उम्मीदें हैं और विवि सरकार से उम्मीद लगाए बैठा है। यह सच भी है कि 'उम्मीदों' पर दुनिया कायम है।
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