हम स्मार्ट सिटी में, लेकिन घर से निकलें तो जेब में रूमाल जरूर हो Dehradun News
दून की सड़क पर बजबजाता कूड़ा। जर्जर सड़कें। नालियों के पास गाद के छोटे-छोटे टीले। खैर इसमें हमें नहीं उलझना है। बस हमें ध्यान रखना है कि हम स्मार्ट सिटी में हैं।
देहरादून, अंकुर अग्रवाल। गुरु द्रोणाचार्य की नगरी दून स्मार्ट सिटी बनने की राह पर चल पड़ी है। वैसे, यह शहर सांस्कृतिक और अध्यात्मिक रूप से धन्य माना जाता है। ...लेकिन समय के साथ काफी कुछ बदल गया। समय की करवट ने द्रोणनगरी से दून सिटी बना दिया है। सभी का साथ सब का विकास। क्लीन दून ग्रीन दून भी। अब विकास को गति देने के लिए शहर का नाम स्मार्ट सिटी हो गया। हम सभी खुश हुए, जश्न मना। लाखों खर्च हुए। सभी ने सपना देख लिया, कुछ दिनों में दून शहर देश के कई अन्य शहरों से अच्छा होगा। मगर कुछ ही दिन में सपने चकनाचूर हो गए। सड़क पर बजबजाता कूड़ा। जर्जर सड़कें। नालियों के पास गाद के छोटे-छोटे टीले। खैर इसमें हमें नहीं उलझना है। बस हमें ध्यान रखना है कि हम स्मार्ट सिटी में हैं। ऐसे में ध्यान रहे कि घर से निकलें तो जेब में रूमाल जरूर हो।
स्मार्ट काम से दुश्वारियां
नियम-कानून ताक पर, दबाव चलता है शहर पर। भइया! यह हम नहीं बल्कि पूरा शहर बोल रहा है। बोल रहा है और चिल्ला भी रहा है। बोल रहा है कि कुछ भी बदल जाये, लेकिन हमें दुश्वारियां देने वाले नहीं बदलेंगे। चाहे हम कुछ भी क्यों न कर लें। आखिर बदलेंगे भी क्यों, उन्हें किसका भय है। उन्हें तो नीति नियंताओं से लेकर नीति अनुपालकों तक का सानिध्य प्राप्त है तो भय किसका रहेगा। जो मन में आये करें, जिस नियम का पालन करना चाहे करें, आखिर बोलेगा कौन। कुछ ऐसा ही हो रहा है इन दिनों शहर में चल रहे स्मार्ट सिटी के काम में। जहां चाहें सड़क खोदकर डाल दी और जहां चाहे सड़क प्रतिबंधित कर दी। सड़कों पर खुले गड्ढे हादसों को न्यौता दे रहे और सामाजिक निगमित दायित्व का निर्वहन कर रही स्मार्ट सिटी प्राइवेट लिमिटेड की नजरें जनता की इन दुश्वारियों पर नहीं पड़ रहीं।
अभी साहब बिजी हैं
खाने-पीने की चीजों में गड़बड़ी चल रही है। उम्मीद की जा रही है कि साहब कुछ न कुछ तो करेंगे। मिलावटखोरों को ठिकाने ही लगा डालेंगे। यह कोई नई बात नहीं, पिछले सालों में कुछ ऐसा होता भी रहा है। अक्सर बड़े त्योहारों पर साहब की अगुवाई में शहर में टीम जाती है और बड़ी-बड़ी कार्रवाई हो जाती है। गड़बड़ी करने वालों पर नकेल भी कस जाती है। लेकिन इस बार अभी साहब को समय ही नहीं मिल पाया है। वे भी करें क्या, व्यस्तताएं बहुत हैं, तमाम काम करने होते हैं। अब कुछ ही दिन बाद होली आने वाली है। होली का खुमार भी अब बाजार पर दिखने लगा है। मगर, साहब फिलहाल फुरसत में नहीं हैं। होली से पहले गैरसैंण में विधानसभा सत्र जो है। फिलहाल तो वहीं की तैयारी चल रही है। साहब की यही व्यस्तता मिलावट करने वालों के लिए मानों सीधी-सीधी छूट बन गई है।
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दवाएं कम, एडजस्ट करो
आजकल स्वास्थ्य महकमे में एक शब्द बड़ा चलन में है। एडजस्ट करो। दरअसल, बीमारी की जड़ विभाग की कंगाली बन गई है। ऊपर से बजट मिल नहीं रहा है। दवाएं और जरूरी सामान नहीं खरीदा जा रहा, तो ऐसे में अस्पताल चलें भी तो कैसे? आला अफसर, जिन पर जिम्मेदारी है वो भी बड़े परेशान हैं। दवा और सामान बेचने वालों से कह रहे हैं कि पुराना बिल चुका देंगे, पहले अभी दवाई तो भेज दो। अभी कुछ तंगी का आलम है, थोड़ा एडजस्ट करो। यह हालात सरकारी अस्पताल में रोजाना सामने आ रहे हैं। अफसर अस्पताल में कर्मचारियों से भी कह रहे हैं कि दवा कम है, एडजस्ट करो। कम दिन की दवा दो। कोई दवा नहीं है तो उसके बदले मिलते-जुलते साल्ट की दवा लिख दो। परेशान हाल मरीजों को कर्मचारी भी समझा रहे हैं कि क्या करें, हम भी तो कर रहे हैं, तुम भी एडजस्ट करो।
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