वन कानून से आई जंगल के रिश्तों में खटास
राज्य में अग्निकाल में वनों को आग से बचाने की दिशा में अपेक्षित जनसहयोग न मिलने के पीछे भी एक बड़ी वजह वन कानूनों की जटिलता भी है।
By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 12 Feb 2018 04:50 PM (IST)Updated: Tue, 13 Feb 2018 11:56 AM (IST)
v>देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: एक तो विषम भूगोल और उस पर वन कानूनों की जटिलता। नतीजा, वन और जन के बीच बढ़ती खाई। राज्य में अग्निकाल में वनों को आग से बचाने की दिशा में अपेक्षित जनसहयोग न मिलने के पीछे भी एक बड़ी वजह यह भी है। जाहिर है कि वन कानूनों में शिथिलता के साथ ही ऐसे कदम उठाने की दरकार है, जिससे जनमानस में वनों के प्रति अपनापा बढ़े। उन्हें अहसास दिलाना होगा कि जंगल उनके अपने हैं।
ज्यादा वक्त नहीं बीता, जब उत्तराखंड में वन और जन के बीच रिश्ते बेहद मजबूत थे। लोग जंगल से न सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी करते, बल्कि इन्हें बचाते भी थे। वन अधिनियम 1980 के अस्तित्व में आने के बाद जंगल से मिलने वाले अधिकारों पर कैंची चली तो जंगल व जन के रिश्तों में खटास आनी शुरू हो गई।
वन कानूनों की जटिलता को इसी से समझा जा सकता है कि बड़ी संख्या में सड़कों के प्रस्ताव वन भूमि हस्तांतरण न होने के कारण लटके हैं तो पानी, बिजली समेत अन्य योजनाएं भी।
यही नहीं, जंगलों से मिलने वाले हक- हकूक पर भी मार पड़ी है। इसके लिए जटिलताएं इतनी हैं कि विभाग की चौखट पर ऐड़ियां रगड़ने की बजाए लोग इसे छोड़ना उचित समझ रहे हैं। ऐसे में वनों से लगातार बढ़ती खाई को पाटने की दिशा में अभी तक कोई गंभीर पहल नहीं हो पाई है।
इस सबका असर वनों को आग से बचाने में अपेक्षित जनसहयोग न मिलने के रूप में देखा जा सकता है। अग्नि सुरक्षा के नाम पर गोष्ठी, रैलियों के नाम पर भले ही विभाग लाखों रुपये फूंके, लेकिन जनता का सहयोग लेने के मामले में वह फिसड्डी साबित हो रहा है। यह एक बड़ी चिंता का कारण भी है। सूरतेहाल, सरकार के साथ ही विभाग को ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे आमजन को लगे कि जंगल उसके अपने हैं।
उधर, वन विभाग के मुखिया जयराज के मुताबिक यह प्रयास किए जा रहे हैं कि राज्य में वन और जन के मध्य रिश्ता मजबूत हो। फिर चाहे वह रोजगारपरक कार्यक्रमों की बात हो अथवा हक-हकूक समेत अन्य मसलों की, इनके समाधान को कदम उठाए जाएंगे।
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