उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क के सरहद की निगेहबान हैं आंखें
सीमा पर हमारे हिमवीर तो मोर्चा संभाले हुए हैं ही लेकिन द्वितीय रक्षा पंक्ति कहे जाने वाले सीमावर्ती गांवों का जोश जज्बा और जुनून जवानों के मनोबल को और ऊंचा कर रहा है।
देहरादून, किरण शर्मा। उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क के सरहद की निगेहबान हैं आंखें। सीमा पर हमारे हिमवीर तो मोर्चा संभाले हुए हैं ही, लेकिन द्वितीय रक्षा पंक्ति कहे जाने वाले सीमावर्ती गांवों का जोश, जज्बा और जुनून जवानों के मनोबल को और ऊंचा कर रहा है। चमोली जिले में सरहद के अंतिम गांव नीती के नारायण सिंह राणा की उम्र भले ही 77 वर्ष हो गई हो, लेकिन इस वय में भी वे जवानों के साथ सीमा पर जाने को तैयार हैं। वर्ष 1962 में हुए भारत चीन युद्ध के दौरान घाटी के करीब आठ सौ लोग घोड़े-खच्चरों पर सैन्य साजो सामान तो ले ही गए, साथ ही जवानों के साथ कंधे से कंधा मिला चार माह मोर्चे पर डटे रहे। अब एक बार फिर गांव के लोग गांव में ही जमे हैं, इस धारणा के साथ कि कहीं सेना को उनकी जरूरत न पड़ जाए।
धुंधली पड़ती उम्मीद
कोरोना संकट तो है, लेकिन यह अवसर भी है। शायद इसीलिए सरकार प्रवासियों को लेकर उत्साहित थी। बीते तीन माह में करीब ढाई लाख प्रवासी देश के विभिन्न शहरों से अपने गांव पहुंचे। पलायन की मार से त्रस्त उत्तराखंड के गांवों में एक बार फिर रौनक है। सरकार उम्मीद लगा रही है कि इनमें से करीब तीस फीसद लोग गांवों में रुक सकते हैं। इससे खाली गांव तो आबाद होंगे ही, सीमांत राज्य को सुरक्षा का एहसास भी होगा। प्रवासियों को रोजगार मुहैया कराने के लिए एक पोर्टल बनाया गया। इस पर रजिस्ट्रेशन कराने वाले को अपने से संबंधित सभी सूचनाएं इसमें दर्ज करनी थीं। हैरत देखिए तमाम प्रचार-प्रसार के बावजूद स्थिति यह है कि अब तक करीब 13 हजार लोगों ने ही इसमें नाम दर्ज कराया है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए, लोग गांव में रुकने को तैयार नहीं हैं या प्रदेश सरकार उनमें कोई भरोसा नहीं जगा पाई।
यात्रा पर संशय
'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' सरकार भले ही चार धाम यात्रा शुरू करने की कोशिश कर रही हो, लेकिन तीर्थ पुरोहित और आम जन तीर्थ यात्रियों को यही संदेश दे रहे हैं। स्थानीय लोग और हक-हकूकधारी नहीं चाहते कि कोरोना काल में यात्रा संचालित की जाए। इन लोगों का तर्क है कि जिन राज्यों से श्रद्धालु आते हैं, वहां कोरोना चरम पर है। दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में स्थित बेहद खराब है। ये वो लोग हैं जिनकी रोजी-रोटी चार धाम यात्रा पर निर्भर करती है। बावजूद इसके स्थानीय लोग किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते। उधर सरकार को राजस्व की चिंता सता रही है। आलम यह है कि उत्तराखंड परिवहन निगम की सेवाएं शुरू करने के बावजूद यात्री नहीं मिल रहे। ऐसे में चार धाम यात्रा पर संशय बरकरार है। मानसून सक्रिय हो चुका है। इस सीजन में यात्रा वैसे भी सुस्त ही रहती है।
....और अंत में
मानसून ने भले ही अभी रफ्तार नहीं पकड़ी, लेकिन रफ्तार पर ब्रेक लगाना जरूर शुरू कर दिया है। हल्की बौछारों में दरकते पहाड़ हाईवे पर आना-जाना बाधित कर रहे हैं। इस सरहदी प्रदेश में यह कोई छोटी बात नहीं है। गढ़वाल में बदरीनाथ और गंगोत्री, कुमाऊं के पिथौरागढ़ जिले में लिपुलेख मार्ग सीधे चीन सीमा से जुड़ते हैं। इन रास्तों की अहमियत सिर्फ क्षेत्र के लिए ही नहीं है, बल्कि सामरिक दृष्टि से इनका महत्व और भी बढ़ जाता है। इन दिनों मलबा आने से सैन्य वाहनों की आवाजाही पर असर पड़ रहा है। जवानों के लिए जाने वाली रसद को समय पर पहुंचाना चुनौती बन रहा है। आम आदमी के लिए यह पहला मौका नहीं, हर वर्ष का मसला है। इसी लिए वो तो यही गुनगुनाता है कि 'हे भाई जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी, दांए ही नहीं बाएं भी।'