Move to Jagran APP

उस अंधेरे घर के भीतर सो रही है रोशनी, छेड़ मत चुप मुंह छुपाए...

इन अट्ठारह सालों में कला-संस्कृति कभी हमारी प्राथमिकताओं में नहीं रही। जबकि, राज्य गठन के मूल में उत्तराखंड की अलग सांस्कृतिक पहचान ही सबसे बड़ा कारक रही है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 31 Dec 2018 04:58 PM (IST)Updated: Mon, 31 Dec 2018 04:58 PM (IST)
उस अंधेरे घर के भीतर सो रही है रोशनी, छेड़ मत चुप मुंह छुपाए...
उस अंधेरे घर के भीतर सो रही है रोशनी, छेड़ मत चुप मुंह छुपाए...

देहरादून, दिनेश कुकरेती। 'उस अंधेरे घर के भीतर सो रही है रोशनी, छेड़ मत चुप मुंह छुपाए रो रही है रोशनी'। कला-संस्कृति के मामले में कुछ ऐसी ही अनुभूतियां दे गया गुजरा साल। लेकिन, इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम उम्मीदों का दामन ही छोड़ दें। यह ठीक है कि गुजरा वक्त वापस नहीं लौटता, लेकिन भविष्य के लिए सबक तो छोड़ ही जाता है। हमें कहां जाना है, इसका फैसला तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि हमें मालूम न हो कि हम कहां थे। अब जबकि नया साल दस्तक दे चुका है, सो नई उम्मीदों का जागना भी लाजिमी है। 

loksabha election banner

लेकिन, इसके आलोक में हम अतीत से मुंह नहीं मोड़ सकते। हम ऐसे सफर में हैं, जो गुजरे कालखंड की खट्टी-मीठी अनुभूतियों को समेटकर ही पूरा किया जा सकता है। राज्य के स्तर पर कला-संस्कृति की घनघोर उपेक्षा के बावजूद व्यक्तिगत प्रयासों से बीते वर्ष जहां हमारे हिस्से में कई उपलब्धियां आईं, वहीं हम उस हकीकत से भी रू-ब-रू हुए, जिसकी भविष्य में पुनरावृत्ति नहीं चाहेंगे। हां! इतना जरूर याद रखना होगा कि 'मिट्टी जब तक अपना हक अदा न करे, हवाओं की सिफारिशों से गुलाब नहीं खिला करते।'

उत्तराखंड भले ही यौवन की दहलीज पर पहुंच गया हो, लेकिन इन अट्ठारह सालों में कला-संस्कृति कभी हमारी प्राथमिकताओं में नहीं रही। जबकि, राज्य गठन के मूल में उत्तराखंड की अलग सांस्कृतिक पहचान ही सबसे बड़ा कारक रही है। उम्मीद थी कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद हम एक ऐसी पहचान कायम करेंगे, जो इस पहाड़ी राज्य की आर्थिकी का संबल बनेगी। लेकिन, राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ऐसा संभव नहीं हो पाया। राज्य की ओर से हमारी लोक विरासत को संवारने के न तो कोई गंभीर प्रयास हुए और न लोक के संवाहकों की सुध ही ली गई। इसी की परिणति है कि आज हम 'खुद' को तलाशने के लिए मजबूर हैं। लेकिन, इस सबके बीच उम्मीद जगाने वाली बात यह है कि लोकधर्मी निज प्रयासों से सांस्कृतिक उन्नयन में जुटे हुए हैं। लाभ-हानि की परवाह किए बिना। इसी के फलितार्थ हैं कि देश-दुनिया में अपनी उत्तराखंडी पहचान को कायम रख पाने में हम काफी हद तक सफल रहे।

मजबूती से आगे बढ़ रहा कारवां

यह ठीक है कि ग्लोबल होती दुनिया में सांस्कृतिक परिदृश्य भी ग्लोबल होता जा रहा है, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध समाजों ने इन परिस्थितियों में भी स्वयं की पहचान को खोने नहीं दिया। देखा जाए तो यही वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती भी है। इस बात को उत्तराखंडी लोक के पुरोधा भी भली-भांति जानते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, लेकिन मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। साल-दर-साल उनकी फेहरिस्त का लंबी होते जाना इसका प्रमाण है। व्यक्तिगत और समूह के स्तर पर हो रहे छोटे-छोटे प्रयासों का ही नतीजा है कि आज विदेशी तक उत्तराखंडी संस्कृति की ओर खिंचे चले जा रहे हैं।

युवा पीढ़ी ने थामी लोकभाषाओं की बागडोर

एक दशक पूर्व जहां युवा पीढ़ी अपनी बोली-भाषा से विमुख-सी नजर आ रही थी, वहीं अब युवा गढ़वाली-कुमाऊंनी के संरक्षण को लेकर गंभीर हुए हैं। इसमें प्रौढ़ एवं बुजुर्ग पीढ़ी भी पूरे मनोयोग से उनका सहयोग कर रही है। इस फेहरिस्त में गढ़वाली व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत, कथाकार संदीप रावत, महावीर रंवाल्टा, डॉ.प्रीतम अपच्छ्याण, डॉ.उमेश चमोला, लोककवि लोकेश नवानी, समालोचक वीरेंद्र पंवार, कवि-अभिनेता एवं रंगकर्मी मदन मोहन डुकलान, गिरीश सुंद्रियाल, गणेश खुगशाल 'गणि', भारती पांडे, प्रयाग पांडे, मधुसूदन थपलियाल, रमाकांत बेंजवाल, बीना बेंजवाल, गीतकार एवं लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी, हीरा सिंह राणा, प्रीतम भरतवाण जैसे बीसियों नाम शामिल हैं। इसके साथ ही भाषाविद् भीष्म कुकरेती, साहित्यकार अचलानंद जखमोला, कवि नेत्रसिंह असवाल, पद्मश्री बसंती बिष्ट, प्रो.दाताराम पुरोहित, जयपाल सिंह रावत, डॉ.माधुरी बड़थ्वाल, चंद्रशेखर तिवारी, डॉ.कुसुम नौटियाल आदि भी लोकभाषाओं की समृद्धि को मन, वचन व कर्म से जुटे हुए हैं। इन तमाम लोकधर्मियों के प्रयासों से गुजरे वर्ष गढ़वाली-कुमाऊंनी में कई कहानी, कविता एवं व्यंग्य संग्रह पाठकों की नजर हुए और उन्होंने लोकप्रियता भी हासिल की।

लोक की समृद्धि को मजबूत 'धाद' 

बेहद सीमित संसाधनों में साहित्य एवं संस्कृति की मासिक पत्रिका 'धाद' का नियमित प्रकाशन भी गुजरे वर्ष की बड़ी उपलब्धि रही। भाषाविद् गणेश खुगशाल 'गणि' के प्रयासों से लगातार पाठकों के बीच पहुंच रही 'धाद' पिछले चार वर्षों से सचमुच लोकभाषाओं की समृद्धि के लिए धाद (आवाज) दे रही है।

देश-दुनिया में गीत-संगीत की गूंज

देश के विभिन्न महानगरों के साथ विदेशी धरती पर भी उत्तराखंडी गीत-संगीत की गंूज रही। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व प्रीतम भरतवाण के साथ ही रजनीकांत सेमवाल, मंगलेश डंगवाल, रोहित चौहान, कल्पना चौहान, संगीत ढौंडियाल, हेमा नेगी करासी, पम्मी नवल आदि लोकगायकों ने न्यूजीलैंड, अमेरिका, कनाडा व जापान के साथ ही गल्फ कंट्री में प्रवासियों के बीच उत्तराखंडी संस्कृति का झंडा बुलंद किए रखा। राजधानी दिल्ली के अलावा मुंबई, चंडीगढ़, लखनऊ, गाजियाबाद आदि महानगरों में भी प्रवासियों की ओर से किए गए सांस्कृतिक आयोजनों ने उत्तराखंडी पहचान को मजबूती दी।

सामाजिक सरोकारों को मिली मजबूती

'दैनिक जागरण' का 'जागरण फिल्म फेस्टिवल' व 'डांडिया रास' का आयोजन सामाजिक सरोकारों की कड़ी में इस बार भी महत्वपूर्ण पहल साबित हुआ। खासकर 'जागरण फिल्म फेस्टिवल' को लेकर साल-दर-साल दून में लोगों का उत्साह बढ़ता जा रहा है, जो निश्चित रूप से सांस्कृतिक विरासत को मजबूती ही प्रदान करेगा।

लोक को गमजदा भी कर गया गुजरा साल

गुजरे साल में हमने लोकभाषा के प्रसिद्ध समालोचक भगवती प्रसाद नौटियाल, लोकभाषा मर्मज्ञ मोहनलाल बाबुलकर, प्रसिद्ध लोकगायिका कबूतरी देवी, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार सुरेंद्रपाल जोशी, प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक डॉ.शमशेर सिंह बिष्ट, प्रसिद्ध रंगकर्मी अतीक अहमद, साहित्यकार चारुचंद्र चंदोला, साहित्यकार हिमांशु जोशी व युवा गायक पप्पू कार्की जैसी विभूतियों को भी खोया। इनकी कमी उत्तराखंडी लोक को हमेशा अखरती रहेगी। लेकिन, ये विभूतियां जिस विरासत को हमें सौंप गई हैं, उसे समृद्ध कर हम इनकी रिक्तता को भरने को कोशिश अवश्य कर सकते हैं। यही इनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.