हरेला पर फोटोशूट के लिए लगा लिए जाते हैं पौधे, फिर किसी को नहीं रहता उनका ख्याल
हरेला पर्व मनाने वालों की बाढ़ सी आ जाती है। एक पौधा लगाया नहीं कि फोटो शूट का अनवरत सिलसिला शुरू। पर फिर उन पौधों का किसी को ख्याल नहीं रहता।
देहरादून, सुमन सेमवाल। मानसून आते ही हरेला पर्व मनाने वालों की बाढ़ सी आ जाती है। एक पौधा लगाया नहीं कि फोटो शूट का अनवरत सिलसिला शुरू। क्या नेताजी, क्या अधिकारी, क्या एनजीओ औऱ आमजन। यह भी नही देखा जाता कि पौधा कौन सा है, इसकी उयोगिता क्या है। भविष्य में कार्बन स्टॉक कर पाएगा भी या नहीं। औषधीय गुणों के आधार पर पौधों का चयन तो दूर की बात है। भई कोरोनकाल में तो कम से कम औषधीय पौधों का चयन करो। पिक्चर का दूसरा पहलू इससे भी गंभीर है। मानसून जाते ही रोपे गए पौधे भगवान भरोसे हो जाते हैं। कोई झांकने भी नहीं जाता कि जो फोटो पौधे के साथ खिंचाया तो वो जिंदा भी हैं? आखिर ऐसी हरियाली का फायदा क्या। जो न आंखों को सुकून दे सके न पर्यावरण को। अब बंद भी करो हरियाली का ये फोटोशूट। पौधा एक लगाओ, मगर उसके फूलने-फलने का भी इंतजाम करो।
हर बार कोर्ट क्यों टोके
क्या हर बार कोर्ट को तय करना चाहिए कि सरकार के नियम क्या हैं। कार्यपालिका क्या अपना काम भूल गई या पिक एंड चूज का मोह नहीं छूट पा रहा। क्या वजह है पेयजल निगम के जिस एमडी की वरिष्ठता 63वें नंबर पर है, वह वर्ष 2013 से नियमित नियुक्ति पर इस पद पर आसीन हैं। वैसे ये महाशय कार्यवाहक के रूप में 2009 से जमे हैं। कैसे कोई अधिकारी अनियमित समय के लिए एक पद पर रह सकता है। शासन ने भले ही इस जून में एमडी पद पर तीन साल की नियुक्ति तय कर दी, मगर अनुपालन कौन करा पाता? इसी अजब-गजब रीति का संज्ञान अब हाइकोर्ट ने लिया। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने जवाब मांगा तो सांप सूंघ गया। अब जाकर साहब को हटाया तो गया, पर उससे पहले आनन-फानन में सलाहकार का पद भी सृजित कर दिया। इसे कहते हैं घुमाकर कान पकड़ना।
सर्विलांस टीम पर एहसान कैसा?
चिलचिलाती धूप और मूसलाधार बारिश, मौसम कोई भी हो आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ता आपको कोरोना से बचाने के लिए मैदान में हैं। कंटेनमेंट जोन में तो ये योद्धा पीपीई किट पहनकर काम करते हैं। भरी गर्मी में है ऐसा करने की किसी की हिम्मत? लिहाज, जब ये कम्युनिटी सॢवलांस के लिए डोर बेल बजाएं तो बाहर आएं और इन्हें अदब के साथ पूरी जानकारी दें। यह भी सोचें कि इनका भी परिवार है। मगर, फिर भी सबकुछ भुलाकर ये हम सबकी सेवा में डटी हैं। अफसोस कि पढ़े-लिखे दून में तमाम लोग इन्हें एक-आध बात बताकर ही चलता कर देते हैं। कई तो दरवाजा भी नहीं खोलते और कई ऐसे बाहर आते हैं, जैसे इन पर एहसान कर रहे हों। ये करें तो क्या, पुलिस की तरह इनके पास डंडा भी नहीं होता। बस इनकी मुस्कान और जज्बे को सलाम करें और कोरोना से जंग में आप भी योद्धा बनें।
व्यवस्था नहीं लोग कठघरे में
'कठघरे में व्यवस्था'। इस वाक्य का इतनी बार दोहराव हो गया है कि सार्वभौमिक सत्य लगने लगता है। जिस व्यवस्था को हम खाते-पीते, उठते-बैठते गरियाते रहते हैं, आज उसकी असली जिम्मेदारी दिख रही है। अब तो हमें इस व्यवस्था का संगी बनकर अपनी बातूनी जिम्मेदारी से आगे बढ़कर उसे मूर्त रूप देना था। पर, हम नहीं सुधरेंगे वाले सूत्रवाक्य पकड़कर अब स्वयं व्यवस्था को खुद पलीता लगाने लगे हैं।
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जब कोरोना का पहला और अंतिम हथियार ही शारीरिक दूरी है तो क्यों उसका पालन नहीं किया जा रहा। लॉकडाउन तक फिर भी कुछ ठीक था, अब अनलॉक शुरू हुआ नहीं कि कि हम सबकुछ भुला बैठे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ऐसे हालात पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। सिस्टम शारीरिक दूरी का पालन कराने में कसर नहीं छोड़ रहा। हम हैं कि व्यवस्था को पलीता लगाने पर तुले हैं। सिस्टम को गरियाने वाले लोग अब स्वयं कठघरे में हैं।
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