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मां वाराही के गर्भगृह गुफा में होते है साक्षात दर्शन

गौरी शंकर पंत लोहाघाट चम्पावत जिले के मां वाराही धाम देवीधुरा का मंदिर भारत के गिने

By JagranEdited By: Published: Mon, 12 Aug 2019 01:00 AM (IST)Updated: Mon, 12 Aug 2019 06:31 AM (IST)
मां वाराही के गर्भगृह गुफा में होते है साक्षात दर्शन
मां वाराही के गर्भगृह गुफा में होते है साक्षात दर्शन

गौरी शंकर पंत, लोहाघाट : चम्पावत जिले के मां वाराही धाम देवीधुरा का मंदिर भारत के गिने-चुने वैष्णवी मंदिरों में से एक है। पौराणिक मान्यता है कि जब हिरणाक्ष्य पृथ्वी को पाताल लोक ले जा रहा था तो पृथ्वी की करुण पुकार सुन भगवान विष्णु ने वाराहा का रूप धारण कर पृथ्वी को अपने बाम अंग में लेकर उसे डूबने से बचाया था, तभी से पृथ्वी स्वरूपा वैष्णवी वाराही कहलाई। यही मां वाराही अनादि काल से गुफा में रहकर भक्तों की मनोकामना पूरी करती आ रही है। आज भी मां वाराही भक्तों के कष्टों को उसी प्रकार दूर करती है जिस प्रकार पौराणिक समय में किया करती थी। जो भक्त आज भी संकट में मां को पुकारता है। मां आज भी अपने भी भक्तों का संकट दूर करती है।

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मान्यता है कि जो सच्चे मन से मां की गर्भगुफा में मां स्मरण करते है। मां उनकी मनोकामना शीघ्र पूरी करती है। आज यह देवीधुरा बग्वाल मेला विश्व प्रसिद्ध बग्वाल मेले के नाम से जाना जाता है। देवीधुरा के खोलीखांड़ दुबाचौड़ में वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल चारों खामों के लोग दो भागों में बंट कर एक दूसरे के ऊपर पत्थर से बग्वाल खेलते थे। परंतु 2013 में स्थानीय लोगों व मंदिर कमेटी के संयुक्त प्रयासों से पत्थरों की जगह फूल व फलों ने ले ली। अब लोगों द्वारा बग्वाल फलों से खेली जाती है। बग्वाल से भी अन्य कथाएं जुड़ी हुई हैं जो महाभारत के राक्षक बेताल से चंद शासन में महर फत्र्याल धड़ों से जुड़ी हैं। मगर पौराणिक कथा यह भी कहती है कि देवासुर संग्राम में मुचकुंद राजा की सेना ने भी भाग लिया था। जिसने असुरों को मां बाराही की कृपा से पराजित किया था तब देव सेना ने प्रसन्न होकर प्रतीक स्वरूप बग्वाल खेली और ई-ह-हा-हा-इ-ही का वैदिक उद्घोष किया। यह दृश्य महाभारत में वर्णित अश्मियोधिन: की याद दिलाता है।

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मां बाराही धाम में खेली जाने वाली बग्वाल का इतिहास

लोहाघाट: प्राचीन समय में देवीधुरा में चम्याल खाम, लमगड़िया खाम, गहड़वाल खाम व वालिग खाम के लोगों में से प्रतिवर्ष एक व्यक्ति की बलि दी जाती थी। इसी क्रम में जब एक बार चम्याल खाम की वृद्धा के एक मात्र पौत्र की बारी आई तो कुल नाश के भय से उसने मां के शक्ति पिंड के पास जाकर तपस्या शुरू कर दी। वृद्धा के तप को देख प्रसन्न हुई मां बाराही ने उससे नर बलि का विकल्प ढूंढने को कहा। वृद्धा चारों खामों के मुखियाओं के पास गई तथा नर बलि का विकल्प बताने की गुहार की। तय हुआ कि चारों खामों के लोग दो दलों में विभक्त होकर एक दूसरे पर पत्थरों की बौछार करेंगे, उनका यह युद्ध तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक एक व्यक्ति के बराबर रक्त न बह जाए। वृद्धा ने जब खामों के इस निर्णय को मां वाराही को बताया तो उसने इसे स्वीकार कर लिया। तब से यहां नरबलि की परंपरा पर विराम लग गया और पत्थर युद्ध बग्वाल की शुरूआत हुई।


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