घंटाघर सुगम और दूसरी जगह राह कर दी दुरूह, पढ़िए पूरी खबर
घंटाघर पर बड़े अफसर जमे रहते हैं और यह देख-देखकर खुश होते रहते हैं कि सब कुछ चकाचक चल रहा है। मगर हकीकत इससे जुदा है।
देहरादून, जेएनएन। घंटाघर पर बड़े अफसर जमे रहते हैं और यह देख-देखकर खुश होते रहते हैं कि सब कुछ चकाचक चल रहा है। मगर, हकीकत इससे जुदा है। बेशक घंटाघर पर उतना जाम न लग रहा हो, मगर इससे पहले गांधी रोड, लैंसडौन चौक व राजपुर रोड के तमाम हिस्सों पर जाम के हालात विकट हो चले हैं।
आइए आपको बता दे दें ऐसा क्यो हो रहा है। घंटाघर से आगे राजपुर रोड की तरफ बढ़ा जाए तो दोनों लेन पर वाहन एक ही दिशा (घंटाघर से राजपुर रोड की तरफ) में भेजे जा रहे हैं। लिहाजा, यहां पर जाम अपने-आप कम हो जाएगा। पर बड़ा सवाल यह कि इसके बाद के हिस्सों पर इसका क्या असर पड़ रहा है। जो वाहन गांधी रोड से दर्शनलाल चौक की तरफ आ रहे हैं, उन्हें सीधा लैंसडौन चौक नहीं भेजा जा रहा। ऐसे में वह पहले घंटाघर और फिर चकराता रोड होकर वापस राजपुर रोड की तरफ आ रहे हैं।
ऐसे में पूरा ट्रैफिक चकराता रोड की तरफ मुड़ जाने से गांधी रोड पर प्रिंस चौक तक वाहनों की लंबी कतार लग जा रही है। यहां तक कि दर्शनलाल चौक से वाहन बुद्धा चौक की तरफ भी नहीं मुड़ पा रहे। जब जाम बढ़ रहा है तो बीच-बीच में द्रोण होटल के सामने अमूमन बंद रहने वाले कट को खोल दिया जा रहा है। इससे गांधी रोड का जाम तो कम नहीं हो रहा, मगर घंटाघर के आसपास कुछ दबाव कम नजर आ रहा है। कुछ ऐसा ही राजपुर रोड से आने वाले वाहनों के साथ भी हो रहा है।
वह घंटाघर की तरफ तो नहीं आ पा रहे मगर, यूकेलिप्टस चौक से लेकर एस्लेहॉल चौक तक का हिस्सा जाम से पैक दिख रहा है। बुद्धा चौक की तरफ से आने वाले वाहनों पर भी स्वच्छंदता का अंकुश होने के कारण हालात विकट हो रहे हैं। इस पूरे प्लान को एरियल व्यू (हवाई दृश्य) से देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि किस तरह घंटाघर पर दबाव कम कर दिया गया है और बाकी चौराहों व तिराहों पर दबाव बढ़ रहा है।
जो रोज झेल रहे, उनके अनुभव दरकिनार
जागरण ने शनिवार के अंक में यातायात के ट्रायल प्लान का जो हाल बयां किया, वह जनता, व्यापारियों और यातायात व्यवस्था में लगे पुलिस कर्मियों के अनुभव पर आधारित था। सही अर्थ में रोज यातायात की स्थिति महसूस कर रहे लोग ही बता सकते हैं कि किस सड़क पर क्या प्लान अमल में लाया जाना चाहिए।
यदि पुलिस अधिकारी भी इस बात का ध्यान रखते तो लोगों को अनावश्यक परेशानी न झेलनी पड़ती। पुलिस के लिए यातायात की प्लानिंग करना और आसान बात थी। अधिकारियों को बस इतना करना था कि जो पुलिस कर्मी रोज चौराहों पर ड्यूटी बजाते हैं, उनसे ही खुले मन से बात कर ली जाती।
या रोज दून की सड़कों को नापने वाले लोगों को उनके घर के आसपास के चौराहों या वैकल्पिक इंतजाम पर चर्चा कर ली जाती। दूसरी तरफ व्यापारी वर्ग भी इस बात को भली-भांति समझता है कि किस सड़क पर यातायात की व्यवस्था में बदलाव करने से क्या फर्क पड़ेगा। गंभीर यह कि पुलिस अधिकारियों ने इनमें से किसी भी स्तर पर ढंग से बात नहीं की और खुद विशेषज्ञ की भांति प्लान बनाकर उसे लोगों पर थोप दिया गया। पुलिस ने सिर्फ लोगों को सड़क पर चलने के विकल्प दिए हैं।
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यह नहीं देखा है कि ये विकल्प सर्वमान्य और व्यवहारिक हैं या नहीं। यातायात कोई रॉकेट साइंस भी नहीं है। सीधा फॉर्मूला है कि एक ही सड़क पर अधिकतर वाहन न गुजरें। क्योंकि हर किसी को एक ही सड़क पर अंत तक नहीं चलना होता है। किसी को बीच में मुड़कर दूसरी सड़क पकडऩी पड़ती है तो कोई अपने मुताबिक छोटी दूरी तय करने के लिए कट ढूंढ लेता है। जब सभी को निश्चित दूरी से गुजारा जाएगा तो पहले से तंग सड़कों के हालात क्या होंगे, यह बताने की जरूरत नहीं।
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