दीमकों की हरकत, सूखे की दस्तक
जागरण संवाददाता, बागेश्वर: पर्वतीय क्षेत्रों में दीमकों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। दीमक जहां एक ओर
जागरण संवाददाता, बागेश्वर: पर्वतीय क्षेत्रों में दीमकों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। दीमक जहां एक ओर हरियाली के लिए घातक साबित हो रहे है वहीं इमारतों और लोगों के लिए भी नासूर बनते जा रहे है। पर्यावरणविदों की माने तो दीमकों का पहाड़ों पर एकाएक सक्रिय होना पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहे बदलाव का सूचक है। दावे के अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों में नमी और पानी की कमी के कारण दीमकों की आमद लगातार बढ़ती जा रही है जो भविष्य में सूखे और अकाल की स्थिति की ओर संकेत करती है। जल्द ही कारगर कदम नहीं उठाए गए तो इसके दूरगामी दुखद परिणाम निश्चित तौर पर भुगतने पड़ेंगे। बागेश्वर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ आदि जगहों पर दीमक (वैज्ञानिक नाम कोपटोटरमेस फारमोसानस) घरों से लेकर पेड़ पौधों को व्यापक रूप में नुकसान पहुंचा रहे है। जिला मुख्यालय में तहसील, एसडीएम कार्यालय, सूचना विभाग के भवन को दीमक धीरे-धीरे चट कर रहे है। यहां की छतें तो खोखली होती जा रही है। यहां लगाए गए पेड़ पौधों को भी दीमक धीरे-धीरे खा रहे है। कब कौन सा पेड़ गिर जाए कहा नहीं जा सकता। दीमकों के संक्रमण के कारण कई घरों की बुनियाद खोखली हो गई है। साथ ही घरों में रखे फर्नीचर और बहुमूल्य सामनों को चट कर दिया है। अलबत्ता दीमकों के इस नुकसान की नजर अभी किसी को नहीं हैं लेकिन इस समस्या ने पर्यावरणविदों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी है।
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क्या मानना है वैज्ञानिकों का
पर्यावरणविदों का कहना है कि जहां पर आर्द्रता या सूखा होता है वहां पर दीमक आसानी से पनपते है। नमी वाली जगहों में यह नहीं पाए जाते है। ऐसा नहीं की दीमक पहले नहीं थे लेकिन वह इस तरह से नुकसान नहीं पहुंचाते थे। अक्सर सूखी जड़ों में ही वह अपनी बांबी या फिर कॉलोनी बनाते थे। अब इनका दायरा घर ही नहीं अपितु हर जगह हो गया है जो पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहे बदलाव का सूचक है। साथ ही भविष्य में सूखे और अकाल की स्थिति की ओर संकेत करता है।
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उद्यान व कृषि के लिए घातक
जिन जगहों पर पानी कम है या उपजाऊ वाली खेती व उद्यान के लिए दीमक बहुत घातक है। दीमक वहां भी लग रहा है और जमीन के अंदर फसल को बर्बाद कर रहा है। गडेरी, अदरक, आलू आदि को यह नुकसान पहुंचा सकता है। चीड़ का जंगल बढ़ाता है शुष्कता चीड़ का जंगल शुष्कता बढ़ाता है जो दीमक को उपयुक्त पर्यावास मुहैया कराता है। पहाड़ में कमोवेश हर जगह बहुतायत में चीड़ का जंगल है।
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प्राकृतिक संतुलन जरूरी
दीमकों के बचने के लिए भूमि में नमी की आवश्यकता होती है। लगातार ईट, क्रंकीट के जंगल बढ़ते जा रहा है। पेड़ पौधों का अंधाधुंध कटान होते जा रहा है। पेयजल स्त्रोत सूखते जा रहे है। पानी की कमी बढ़ती जा रही है। इसलिए हरे-भरे पेड़ पौधे लगाए। जो पर्याप्त नमी देते हो। अगर प्राकृतिक संतुलन करना जरूरी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि केमिकल से भी दीमक को मारा जा सकता है लेकिन वह कारगर उपाय नहीं है।
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लंबाड़ी में ग्रामीणों को छोड़ना पड़े अपने आशियाने
अल्मोड़ा : पौड़ी, अल्मोड़ा और चमोली जिले की सीमा से सटा गांव लंबाड़ी। पिछले तीस सालों से सिसक रही जिंदगी जी रहे यहां के लोग अब हालात के आगे मजबूर हैं। हर तीन महीने में यहां के लोगों को अपने घरों की छत बदलनी पड़ती है। घर में रखे कपड़े हों या फिर खाने पीने की कोई चीज। दीमक कुछ ही घंटों में हर चीज को चट कर जाती है। स्थिति से निपेटन के लिए वैज्ञानिक शोध भी नाकाम ही साबित हुए हैं। 42 परिवारों वाले इस गांव में लगभग तीस साल पहले दीमकों का प्रकोप शुरू हुआ था। वर्तमान में इस गांव के अधिकांश परिवार यहां से पलायन कर गए हैं। जो बचे भी हैं वह इस समस्या का सामना करने को मजबूर हैं।
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दीमक पहाड़ में लगातार बढ़ते जा रहे है। जो एक खतरनाक संकेत है कि पर्वतीय क्षेत्रों में शुष्कता बढ़ रही है। शुष्क वातावरण में दीमक आसानी से अपनी कालोनी को बढ़ाते है। अगर समय रहते कारगर कदम नहीं उठाए तो यह कृषि व उद्यान को भी नुकसान पहुंचाएंगे। जो पहले से ही खतरे में है।
-डॉ. रमेश बिष्ट, पर्यावरणविद