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जीवंत हो उठी आठों कौतिक की गौरवशाली परंपरा

संवाद सहयोगी चौखुटिया उत्तराखंड की गैरवशाली प्रेमगाथा-राजुला मालूशाही की कर्मभूमि र

By JagranEdited By: Published: Sat, 13 Apr 2019 11:12 PM (IST)Updated: Sun, 14 Apr 2019 06:28 AM (IST)
जीवंत हो उठी आठों कौतिक की गौरवशाली परंपरा
जीवंत हो उठी आठों कौतिक की गौरवशाली परंपरा

संवाद सहयोगी, चौखुटिया : उत्तराखंड की गैरवशाली प्रेमगाथा-राजुला मालूशाही की कर्मभूमि रही बैराठ नगरी चौखुटिया का प्रसिद्ध पौराणिक मेला-आठों कौतिक की उमंग शनिवार की दोपहरी के साथ ही परवान चढ़ती गई। शाम को मां अगनेरी मेला स्थल पर कौतिक्यारों की भारी भीड़ जुट गई। विभिन्न ऑलों के ग्रामीण नगाड़े-निशाणों के साथ पहुंचे। जमणियां से मां का डोला सजधज कर लाया गया तथा मंदिर की परिक्रमा के बाद विधि विधान से नारियल तोड़कर मां को चढ़ाया गया।

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गेवाड़ घाटी का आठों कौतिक अगनेरी मंदिर परिसर में प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्र के दौरान लगता है। शनिवार को मुख्य मेले में सुबह से ही मेलार्थियों का पहुंचने का क्रम शुरू हो गया। दोपहर बाद मेले में अपार भीड़ जुट गई। इस दौरान लोगों ने पारंपरिक झोड़ा गायन, चांचरी व भगनौल गायन का आनंद लिया तथा परिसर के आसपास लगे दुकानों से सामान की खरीददारी की।

दोपहर बाद मेले की परंपरा को निभाते हुए जमणियां थोक के ग्रामीणों द्वारा मां के जयकारों के बीच सजधज कर मां का डोला अगनेरी मंदिर लाया गया तथा अन्य निर्धारित ऑलों से भी ग्रामीण मां की भक्ति में डूबकर गाजे-बाजे व नगाड़े-निशाणों के साथ नाचते कूदते मेला स्थल पहुंचे। परंपरा के अनुसार सायं चार बजे मां के डोले के साथ मंदिर की परिक्रमा की गई एवं वैदिक मंत्रों व शंख ध्वनि के बीच बलि के स्थान पर नारियल तोड़कर मां को चढ़ाया गया। वहीं बारी के अनुसार डोला लाने का अगला बीड़ा सौनगांव को सौंपा गया। इसके साथ ही मुख्य मेला संपन्न हो गया।

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मेले में पुलिस व्यवस्था चौकस रही

मेले में कहीं कोई अव्यवस्था व गड़बड़ी न हो, इसकेलिए पुलिस प्रशासन पूरी तरह चौकना रहा तथा स्थान स्थान पर जवान तैनात रहे। फायर वाहन भी वहीं खड़ा था। हर गतिविधियों पर नजर रखने के लिए थानाध्यक्ष रमेश बोहरा मौके पर ही जमे रहे।

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मुख्य मेले में पूर्व में दी जाती थी पशु बलि

गेवाड़ घाटी का आठों कौतिक क्षेत्र का पौराणिक व धार्मिक मेला है। जो बीते 118 वर्षो से चला आ रहा है। पूर्व में मेले का मुख्य आकर्षण पशु बलि था, जिसे विभिन्न थोकों के ग्रामीण बारी बारी से निभाते आ रहे थे, लेकिन पशु बलि पर रोक लग जाने के बाद वर्ष 2013 में यह प्रथा टूट गई तथा मेले के स्वरूप को जीवंत बनाए रखने के लिए मेला समिति ने बीते तीन वर्षो से मां का डोला लाने की परंपरा शुरू की है।


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