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वैज्ञानिक युग से कहीं आगे था कत्यूरकाल का जल विज्ञान

दीप सिंह बोरा, रानीखेत कत्यूरी शासनकाल में स्थापत्यकला जितनी समृद्ध थी, वहीं जल विज्ञान आज

By JagranEdited By: Published: Sun, 17 Dec 2017 10:24 PM (IST)Updated: Sun, 17 Dec 2017 10:24 PM (IST)
वैज्ञानिक युग से कहीं आगे था कत्यूरकाल का जल विज्ञान
वैज्ञानिक युग से कहीं आगे था कत्यूरकाल का जल विज्ञान

दीप सिंह बोरा, रानीखेत

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कत्यूरी शासनकाल में स्थापत्यकला जितनी समृद्ध थी, वहीं जल विज्ञान आज के वैज्ञानिक युग से कहीं आगे। बेजोड़ प्रस्तरशैली में 'नौलोंट' का निर्माण कर उन्होंने हिमालयी प्रांत के लिए जल संरक्षण की दीर्घकालीन योजना छठी से 11वीं सदी के बीच ही तैयार कर ली थी। उच्च पहाड़ी क्षेत्रों में 'नौले', जलकुंड से हटकर स्नानगृह, बाहर बहने वाले पानी की निकासी को पत्थरों का मजबूत नाला, फिर पोखर। यानी बूंद बूंद बचाने की चिंता व भविष्य में जल संकट से निबटने को 'चाल खाल' के जरिये भूमिगत जल भंडार को लबालब रखने की सोच कहीं गहरी थी।

हिमालयी प्रांत में मध्ययुगीन कत्यूरी राजवंशों ने कोणार्क व खजुराहो की तर्ज पर ग्रेनाइट पत्थरों के जरिये स्थापत्य कला को ही नहीं बल्कि भविष्य की चुनौतियों को परखते हुए जल नीति तक तैयार कर ली थी। शोध एवं अध्ययन में लगे जानकारों की मानें तो जल संरक्षण की मुहिम छठी से 11वीं सदी के बीच तक जोरशोर से चली। बेजोड़ प्रस्तर शैली के मंदिरों के साथ पानी बचाने के लिए नौलों की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया।

प्राकृतिक हिमनदों व स्रोतों वाले जोशीमठ (गढ़वाल) के बाद कार्तिकेयपुर (बागेश्वर) को अपनी दूसरी राजधानी बनाने के बाद कत्यूरी राजाओं ने कुमाऊं में गैरहिमानी नदियों व जल स्रोतों के संरक्षण का जो बीड़ा उठाया, वह वैज्ञानिक युग के योजनाकारों के लिए नसीहत से कम नहीं।

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स्याही देवी का नौला है अनूठा उदाहरण

समुद्रतल से सात हजार मीटर की ऊंचाई पर स्याही देवी वन क्षेत्र के शिखर पर कत्यूरकाल में बना नौला प्राचीन जल नीति का अनूठा उदाहरण है। नौले के ओवरफ्लो होने तथा बाजू में ही स्नानगृह के पानी के लिए पत्थरों का व्यवस्थित नाला बना है। कुछ ही दूरी पर अच्छा खासा कृत्रिम तालाब, ताकि पानी उसी में एकत्र हो सके। स्याहीदेवी वन क्षेत्र में जल जंगल बचाने में जुटे प्रकृतिक प्रेमी ललित सिंह बिष्ट कहते हैं, हालाकि जागरूकता के अभाव व तंत्र की सुस्ती से यह तालाब अब झाड़ियों व मलबे से पट सा गया है। फिर भी ग्रामीण नौले को धरोहर की भांति सहेजे हुए हैं।

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पहले जानवर, फिर आबादी को शुद्ध पानी

कत्यूरकाल की जल नीति को यदि समय रहते अपना लिया जाता तो मौजूदा संकट से निबटने में बड़ी मदद मिलती। स्याहीदेवी वन क्षेत्र के नौले को ही लें। नौले से बह कर निकला पानी कृत्रिम तालाब (खाल) में जमा हुआ। यह पानी जंगली जानवरों व ग्रामीणों के मवेशियों की प्यास बुझाता। यही पानी रिस कर भूमिगत जल भंडार में पहुंच कर निचले भूभाग में जलस्रोतों को जिंदा रखता है। इसका शुद्ध पानी आमजन का हलक तर करता आ रहा।

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'कत्यूरकाल की नौला संस्कृति से यह तो स्पष्ट है कि उस दौर का जल विज्ञान आज से कहीं आगे था। कत्यर वंशी बुद्धिजीवि व जागरूक थे। उन्होंने भविष्य में आबादी के साथ पानी की जरूरत बढ़ने के हिसाब से जल संरक्षण को चालखाल, कृत्रिम तालाब व नौलों की जो अवधारणा दी वह अद्भुत है। तब के जल विज्ञान को देखकर पता लगता है कि पानी बचाने की चिंता तब ज्यादा थी। जनचेतना आज से कहीं ज्यादा भी।

- चंद्र सिंह चौहान, कुमाऊं प्रभारी क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई'


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