रणबांकुरों के मैदान से रंगकर्मियों की भूमि तक
जगत सिंह रौतेला, द्वाराहाट बग्वालीपोखर पांडवयुगीन सभ्यता व संस्कृति की मूक गवाह रही है, तो
जगत सिंह रौतेला, द्वाराहाट
बग्वालीपोखर पांडवयुगीन सभ्यता व संस्कृति की मूक गवाह रही है, तो गौरवशाली कत्यूरकाल व चंदवंश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा अहम पोखर (तालाब) भी। खास बात यह है कि बग्वालीपोखर की यह धरा रक्तरंजित गाथाओं के लिए भी जानी जाती रही। प्रचलित दंतकथाओं के अनुसार यह धरा कभी कुमाऊं एवं गढ़वाल के शासकों के बीच भीषण युद्ध से रक्तरंजित हुई। यही नहीं डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक पोखर के चारों ओर फैला यह रणक्षेत्र बनता रहा है। और रक्तपात न हो इसके लिए भंडरगांव के लड़ाकों ने सांकेतिक बग्वाल (पाषाण युद्ध) का श्रीगणेश किया। बाद में इसमें भी बदलाव कर एक व्यक्ति के बराबर वजनी पत्थर उठा कर तालाब में फेंकने की परंपरा शुरू की गई। मगर यही रणभूमि अब रंगभूमि बन गई है, जहां से संस्कृति संरक्षण का संदेश दिया जाने लगा है।
साहित्यकार डॉ. जगत सिंह भंडारी के अध्ययन एवं पुस्तक का हवाला देते हुए रंगकर्मी हरीश डौर्बी कहते हैं, कई बार रक्तरंजित इस रणभूमि पर भंडरगांव के लड़ाकों ने खूनी बग्वाल यानि लठ व पाषाण युद्ध की शुरूआत की। कालांतर में स्थानीय संस्कृति कर्मियों व बुजुर्गो ने जागरूकता का संचार किया। बेवजह खून न बहे, आपसी सौहार्द कायम रहे, धड़ों (छोटी छोटी रियासतें) में खुनी संघर्ष न हो, इसके लिए तत्कालीन थोकदार ने डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मैदान के बीचों बीच पोखर में विशालकाय पत्थर उठाकर फेंकने की परंपरा शुरू कराई। हालांकि यह परंपरा भी सौ वर्ष पूर्व खत्म हो कर संस्कृति संरक्षण की ओर बढ़ गई।
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10वीं सदी से शुरू हुआ मेला
बग्वाली मेले का इतिहास 10वीं सदी से मिलता है। जानकार बताते हैं तब कौतिक में लठ व पाषाण युद्ध की परंपरा थी। रणबांकुरे रणकौशल का प्रदर्शन करते थे। बाद में पोखर में विशाल पत्थर उठा कर फेंकने की परंपरा चली। इससे पोखर पटता गया। वर्तमान में तालाब मैदान बन चुका है। इसी पर शहीद स्मारक है। साथ ही रामलीला का मंचन कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शो को अपनाने तो बग्वाली मेले के जरिये देवभूमि की सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का संदेश दिया जाता है।