world family day 2020 पचास से ज्यादा लोगों के कुनबे में सबकी जिम्मेदारी अलग, भोजन साथ में
वाराणसी के कबीरचौरा में इस परिवार में पचास से ज्यादा लोगों के कुनबे में सबकी जिम्मेदारी अलग लेकिन भोजन साथ में ही।
वाराणसी [कुमार अजय]। जब तक बंद है मुट्ठी अनमोल लाखों लाख की है, खुल गई तो समझो बस खाक की है...
आखिरी सांस ले रहे पिता स्व. विश्वनाथ सरदार की इस सीख को सरदार भइया लाल ने संपुट मंत्र की तरह निबाहा। दशकों बीत जाने के बाद भी परिवार को एकजुट रखने के संकल्प को कभी डिगने नहीं दिया। चाहे उधेड़बुन की अंधेरी गलियां मिलीं या फिर असमंजस का फरेबी चौराहा। छोटी-छोटी कुर्बानियों से बूटे गए एका के इस मजबूत धागे के दम पर ही सरदार ने पारिवारिक टूटन के दौर में भी पचासों परिजनों के इस गुलजार कुनबे को बंद मुट्ठी की तरह कसकर बांध रखा है। जहां सुमति तहां संपति नाना... के तुलसियाना फलसफे से साध रखा है।
हम और तुम... तुम और हम की मृगमरीचिका के शिकार होकर फ्लैट की दमघोंटू दीवारों के अंदर ही कैद होकर रह गए लोगों के लिए दुनिया के आठवें आश्चर्य से कम चौंकाऊं नहीं होगा यादव परिवार के कबीरचौरा स्थित निवास का खुला आंगन। जहां सुबह-शाम बैठने वाली तीसों-चालीसों सदस्यों की वह पंगत जहां लोग हंसते-बतियाते एक-एक कौर का लुत्फ उठाते हैं। तमाम मसरूफियतों से बरी होने के बाद भी इसी बहाने कम से कम दो मर्तबा अपने कंधे जोड़ पाते हैं। इन पंगतों में बूढ़े-बच्चे, सास-बहुएं शामिल होती हैं। परोसने की जिम्मेदारी संभालती हैं घर की बेटियां। परिवार के इस नियमित भोज में बतकुच्चन है, ठहाके हैं। शिकवे-शिकायतें हैं तो कोरोना के कहर की बाते हैं। किसी के दिनभर के काम की समीक्षा होती है तो कड़ी डांट-डपट के साथ किसी के धैर्य की परीक्षा होती है। विखंडन से तार-तार हुए संयुक्त परिवार की सोच की गैरहाजिरी को इंज्वॉय करता यह दृश्य यकीनन मन को छूता है। रेगिस्तान में उतरे सावन की फुहारों की तरह हर किसी के मन को भिगोता है।
अपना काम, सबकी अपनी जिम्मेदारी
परिवार की लीक से अलग हटकर राजनीति और समाजसेवा के क्षेत्र में काम कर रहे सरदार के छोटे बेटे अवनीश यादव इस परिवार की ताकत के प्रबंधन का गुर बताते हैं। किसके ऊपर कितनी जिम्मेदारी है, उसकी फेहरिस्त गिनाते हैं। उनका कहना है कि लिखने पढऩे वाले बच्चों को छोड़ परिवार का मर्द हो या औरत हर हाथ में काम है, कंधों पर जिम्मेदारी है। अनुशासन की डोर है, जीवन के हर पल पर नियमों की पहरेदारी है। घर के मुखिया पिताजी यानी भइया लाल सरदार सुबह के चार बजते ही मवेशियों को चारा देने से लेकर दूध दुहने के काम में जुट जाते हैं, साथ में कम से कम आधा दर्जन किशोर और युवा सदस्य काम में हाथ बंटाते हैं। कबीरचौरा वाली चाय की दुकान का जिम्मा बबलू और अन्य भाइयों का है। सेनपुरा वाली दुकान मुरारी सरदार और सनोज देखते हैं। छोटई सरदार घर की इंतजामात का भार संभालते हैं। भइया लाल जी का बेटा क्रिकेटर अविनाश अक्सर देश-विदेश के दौरों पर रहता है। इसके अलावा मवेशियों को चारा देने, उन्हें नहलाने के लिए नदी ले जाने व ग्राहकों को दूध पहुंचाने का काम सबको क्षमता के अनुसार बंटा हुआ है। घर की औरतें घरेलू काम के अलावा व्यवसाय के काम में भी अलग से सहयोग करतीं हैं। उनकी साज-संभाल की जिम्मेदारी परिवार की बुजुर्ग (बड़ी मां) मुंशी देवी के कंधों पर है। बड़ी बात यह है कि किसी भी काम में महिलाओं की राय भी ली जाती है।
कुर्बानियों की नीवं पर एका की मीनार
भइया लाल कहते हैं कि एकता की यह दीवार छोटी-छोटी कुर्बानियों की बुनियाद पर खड़ी है। यह मुखिया के व्यवहार पर निर्भर करता है कि वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से अलग कितना त्याग कर सकता है।
कबीरचौरा को बहुत मिस करता हूं
कबीरचौरा से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मैदान पर पहुंचे काउंटी क्रिकेट और आइपीएल के स्पिनर अविनाश रेलवे के स्टार खिलाड़ी हैं। वे मजबूरी में डीरेका परिसर के आवास पर अलग रहते हैं। कहते हैं कबीरचौरा को बहुत मिस करता हूं। घर के सदस्यों के साथ बैठकर खाने की आदत रही है। यकीन मानिए अब अलग रहना मन को बहुत कचोटता है। लॉकडाउन में अभी दो दिन पहले अपनी बिटिया मिशिता का जन्मदिन मनाया। पापा को छोड़ और कोई नहीं आ पाया। यह अच्छा नहीं लगा।