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चित्रकूट की प्राचीन लीला के प्रति काशीवासियों की आस्था की कहानी

भरत मिलाप में शामिल लाखों की भीड़ में रथ उठाने वाले यादव बंधुओं की अलग ही पहचान होती है। लकालक सफेद धोती और कसी हुई आधी बांह की गंजी क्रास बेल्ट की तरह कंधों से लटकता दुपट्टा और माथे पर सोहती मुरेठेदार लाल पगड़ी।

By JagranEdited By: Sanjay PokhriyalPublished: Sat, 24 Sep 2022 09:48 PM (IST)Updated: Sat, 24 Sep 2022 09:48 PM (IST)
चित्रकूट की प्राचीन लीला के प्रति काशीवासियों की आस्था की कहानी
भागीदारी तो आज भी हजारों यादव बंधुओं की होती है।

कुमार अजय, वाराणसी: एक-एक क्विंटल के वजनी लट्ठों का कन्हावर, मोट-मोटे तख्तों वाला चबूतरा और ऊपर से चबूतरे पर कसा गया राम-जानकी का सिंहासन। उत्साह के अतिरेक में पुष्पक विमान का प्रतीक रामजी का भीमकाय रथ तो बन गया, अब सामने समस्या खड़ी कि गुरु वशिष्ठ, जामवंत, हनुमान जी और व्यास जी के साथ श्रीराम पंचायतन की झांकी वाले विमान को उठाए कौन? विमान का वजन और लीला क्षेत्र की दूरी का अंतर भाप कर सारे मजूरे तो भाग खड़े हुए, कस-बल आजमा कर औरों ने भी हथियार डाल दिए। तब हुंकारा बांधा काशी के यादव बंधुओं ने कि रघुकुल नायक का भार तो यदुकुल के वंशज ही उठा सकते हैं। 400 साल पुरानी यह कथा आज भी चित्रकूट की प्राचीन लीला के प्रति काशीवासियों की आस्था की कहानी कह रही है।

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संस्कार बचपन से

पारंपरिक वेशभूषा में सजे यादव कुल के नन्हे बच्चे काशी के विश्व प्रसिद्ध भरत मिलाप (नाटीइमली) की रथ की दौड़ में अपने बड़ों के साथ कदम मिलाते हर साल ही नजर आते हैं। कबीरचौरा के भैया लाल सरदार बताते हैं, 'लड़िकइयें से मिलाप में घर के बचवन के भेजल जाला। रथ काहे उठावै के हौ अउर रथ कइसे उठावै के हौ, दुनों क ट्रेनिंग मिल जाला। रथ लेके चले में भी बड़ी कारीगरी हौ। कब दहिना पैर आगे जाई और कब बायां पीछे होई, ई समझे के पड़ेला, सीखे के पड़ेला।'

मान्यताएं जुड़ती गईं

परंपराओं की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, नई-नई मान्यताएं उससे जुड़ती जाती हैं। भरत मिलाप के रथ के साथ भी ऐसा ही है। लोकमान्यता में ऐसी मन्नतें प्रचलित हैं, जिनमें वंशवृद्धि के लिए इस संकल्प के साथ मनौती की जाती है कि बच्चे के कंधे को बालपन में ही रथ का स्पर्श कराया जाएगा। बड़े होने पर यही बच्चा श्रद्धा से संकल्पित हो जाने के कारण स्वेच्छा से परिवार की परंपरा निभाने लगता है।

हजार से ऊपर की भागीदारी

रथ के संचालन में एक साथ लगभग 100 कंधे ही लगते हैं। मगर कंधा बदलने के लिए हमेशा सैकड़ों कंधे तैयार रथ के समानांतर दौड़ते रहते हैं। भागीदारी तो आज भी हजारों यादव बंधुओं की होती है।

पारंपरिक वेशभूषा

भरत मिलाप में शामिल लाखों की भीड़ में रथ उठाने वाले यादव बंधुओं की अलग ही पहचान होती है। लकालक सफेद धोती और कसी हुई आधी बांह की गंजी, क्रास बेल्ट की तरह कंधों से लटकता दुपट्टा और माथे पर सोहती मुरेठेदार लाल पगड़ी। ऐसी रूपसज्जा कि बस आंखें ठहर जाएं। चित्रकूट (नाटीइमली) से चले विमान अयोध्या (बड़ा गणेश) पहुंचाने के बाद जब गमछे के फांड़ में तुलसी दल या लड्डू का प्रसाद गिरता है तो रथवइये उसे ऐसा सहेजते हैं, मानो दुनिया की अनमोल निधि मिल गई हो। चेहरे पर यह श्रद्धा भाव, जिसकी कल्पना बड़ी से बड़ी उपलब्धि के बाद भी नहीं की जा सकती।


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