मस्त मलंगों के शहर काशी की परछाई, 'किशन' में नजर आई
संगीत-कला, खानपान, पहनावा, रहन सहन में समाया मस्त मिजाज व अल्हड़पन काशी की पहचान है तो पं. किशन महाराज इसकी परछाई।
वाराणसी, जागरण स्पेशल : धर्म अध्यात्म की नगरी काशी जब भोले बाबा के रस-रंग में नहाती है तो मस्त-मलंग शहर बनारस बन जाती है। संगीत-कला, खानपान, पहनावा, रहन-सहन में समाया मस्त मिजाज व अल्हड़पन इसकी पहचान हैं तो पं. किशन महाराज इसकी परछाई। मस्त मलंगों के शहर के हर रस-रंग को तबला सम्राट ने आजीवन जिया। गीत- संगीत और सुर-साज तो उनके रग-रग में था ही देश-दुनिया में जहां-कहीं भी गए मानो इस नगर का आइना हो गए और सामने वाले को समूचा बनारस दिखा दिया। दरअसल, अपनी कला-साधना से शोहरत की बुलंदियों को छूते कृष्ण प्रसाद से किशन महाराज हुए लेकिन अपने आप में जिंदा शहर बनारस को सदा आबाद रखा। यही कारण रहा कि उनके स्वाभिमानी व्यतित्व के कारण भले अक्खड़ कहा गया लेकिन उनकी अल्हड़ता व सहज सुलभता ने उन्हें पद्म अवार्डियों की गली के नाम से मशहूर कबीरचौरा में किशन चच्चा का ही संबोधन दिया। संगीत मंच पर छाए तो अखाड़े में भी दो हाथ करते नजर आए। देश दुनिया में ख्याति के बाद भी गमछा लपेटे गली के नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर अड़ी जमाने से भी खुद को न रोक पाए। कार्यक्रमों की व्यस्तता से जब भी फुर्सत मिली यहां हर एक का हालचाल और चाल-ढाल तक जान लिया और बेलौस ठहाके से अपनी उपस्थिति का अहसास करा दिया। उनके बनारसीपन और मन-मिजाज का ज्यादा कुछ अंदाजा तो उनकी छवि देखने मात्र से लग जाता है, उनका जिक्र होते ही सब कुछ उनके नजदीक रहे लोगों की जुबान पर बरबस ही छा जाता है। गोरा चिंट्टा बदन, लंबी-चौड़ी कद-काठी पर लकदक कुर्ता, गले में चेन से लटकती लाकेट और माथे पर तिलक से सजा व्यक्तित्व ऐसा कि अपलक निहारने को विवश कर दे। मंच पर जब अपने पर आ जाएं तो सामने वाले कलाकार के पसीने छुड़ाए तो मस्ती में आने पर एक से एक चुटीले संवादों से लोटपोट करा जाएं। उनके भांजे पद्मभूषण पं. राजन-साजन मिश्रा इसे आज भी बताते न अघाते हैं। खानपान में सेहत का ध्यान तो पान तो मानो उनकी जान ही था बड़े इत्मीनान से खुद पानदान सजाते। उसमें गिन कर सोलह बीड़ा लगाते, इसमें खुद के लिए बारह व चार साथ बैठे किसी के भी नाम हो जाते। पान के शौकीनों की कोई एक 'पेट्' दुकान होती होगी लेकिन पंडित जी बनारस में हुए तो कत्था, सुर्ती, पत्ता की वेराइटी अनुसार अलग अलग दुकानों से मंगा पान जमाते। स्वाभिमानी (जिसे लोगों ने अक्खड़पन नाम दिया) इतने की जब अपने पर आते तो बड़े-बड़ों की ऐसी-तैसी कर जाते। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि एक बार नागरी नाटक मंडली में आयोजित समारोह में जब बतौर मुख्य अतिथि तत्कालीन कमिश्नर को देर हुई तो उन्होंने खुद मंच संभाला और शुभारंभ कर दिया।