Gyanwapi Masjid Case: मस्जिद परिसर में मुस्लिम पक्ष का अधिकार; जांच में हिंदू उपासना स्थल के साक्ष्य
Gyanwapi Masjid Case न्यायालय द्वारा विशेषज्ञों की देखरेख में की गई आरंभिक जांच में कुछ ऐसे तथ्य और साक्ष्य मिले हैं जो स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि पूर्व में यह उपासना स्थल मंदिर ही था और यहां शिवलिंग भी स्थापित था।
सन्नी कुमार। अतीत की उलझन कई बार इतनी सघन होती है कि वर्तमान की गति बिगड़ जाती है। बीते दिनों ज्ञानवापी विवाद के बाद यह बात एक बार फिर साबित हुई। चूंकि अतिरेकों के इस युग में विवेक के सहारे किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का संयम कम ही बचा है, इसलिए इस विषय को भी स्पष्ट द्वैत की तरह ही विवेचित किया गया। एक पक्ष यह मान रहा है कि ज्ञानवापी परिसर पर मुस्लिम समुदाय का अनन्य अधिकार है। दूसरे पक्ष का तर्क है कि यह स्थल ऐतिहासिक रूप से हिंदू पूजास्थल है जिसका मध्यकाल में मुगल शासक औरंगजेब ने स्वरूप बदल दिया था। इसलिए स्वाभाविक रूप से इस पर हिंदुओं का दावा बनता है। कुल मिलाकर यह मामला ‘हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व’ के रूप में सरलीकृत हो गया, जबकि स्पष्ट रूप से इसके तीन पक्ष हैं।
पहला पक्ष है विधान का। यानी क्या इस मामले को कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना गलत है? दूसरा पक्ष है बुनियादी धार्मिक असहमति और सामाजिक सह-अस्तित्व का। तीसरे पक्ष के रूप में ऐतिहासिक स्मृति और वर्तमान में उसकी विवेचना को रखा जा सकता है। जब तक इन तीनों ही पक्षों पर ठीक से संवाद नहीं कर लिया जाता, इनसे उपजे कठिन सवालों के हल खोजने की ईमानदार मंशा नहीं जताई जाती, तब तक ज्ञानवापी जैसे विषय पर कोई भी ठोस और नैतिक निर्णय नहीं लिया जा सकता। सबसे पहले अगर वैधानिक आधार को देखें तो कहा जा रहा है कि चूंकि ‘उपासना स्थल अधिनियम, 1991’ के प्रविधान स्पष्ट तौर पर यह कहते हैं कि 15 अगस्त, 1947 के बाद किसी भी उपासना स्थल की अवस्थिति में छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता, इसलिए ज्ञानवापी परिसर को कानून के दायरे में लाना गलत है।
यह तर्क एक हद तक ठीक है, लेकिन इसमें कई बुनियादी दिक्कतें भी हैं। एक तो यह कि अब जब कोर्ट ने सुनवाई करना स्वीकार कर लिया है तो फिर इस तर्क के सहारे समाधान की राह क्या हो? दूसरा, अगर हम ऐसे मामलों के समाधान के लिए केवल विधान पर निर्भर रहें तो यह भी संभव है कि इस कानून में ही संसद द्वारा ‘अनुकूल संशोधन’ कर दिए जाएं। आखिर संख्याबल भी निश्चित रूप से ऐसे बदलाव के पक्ष में है। फिर इसका समाधान कैसे होगा? और यह संख्या कहां रुकेगी? क्योंकि मंदिर को विरूपित करके मस्जिद बनाने के उदाहरण तो कितने ही मिल जाएंगे, फिर उसका वैधानिक समाधान क्या होगा अगर राज्य कोई नया हल तलाशना चाह ही ले तो? आखिर जब हम ऐसे मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार राज्य को सौंप देंगे तो निश्चित ही इसका परिणाम राजनीतिक होगा, जो कि अपर्याप्त है।
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी कि धार्मिक असहमति और सामाजिक सह-अस्तित्व के प्रश्न पर राज्य के हस्तक्षेप की नौबत आ गई? वस्तुतः समाज के ऐसे मुद्दों को हल करने की जिम्मेदारी जिन बौद्धिकों, चिंतकों और इतिहासकारों पर थी, उनके दूषित, अनमने और अपरिपक्व रवैये ने मामले को उलझा दिया। इन बौद्धिक संपदा के हितधारकों ने सामाजिक जटिलता को नजरअंदाज कर संवैधानिक सेक्युलरिज्म की रट लगाए रखी। वास्तविक धरातल की सच्चाई को छोड़कर दस्तावेजी सच पर अधिक भरोसा किया गया। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम प्रश्न काफी संघर्षपूर्ण रहा है, लेकिन आजादी के बाद इस संघर्ष का कोई समाधान खोजे बिना यह मान लिया गया है कि यह मुद्दा हल हो चुका है।
एक काल्पनिक भाईचारे की कल्पना कर समस्या से मुंह फेर लिया गया। दरअसल समाज का यह अगुआ वर्ग राज्य के इशारों पर काम करता रहा। राज्य ने राजकीय चुनौती को आसान बनाने का इशारा किया और इस वर्ग ने ‘सेक्युलरवाद’, ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ आदि जैसे लुभावने नारे गढ़ दिए। इससे ऊपरी तौर पर तो यह आभास हुआ कि बुनियादी धार्मिक असहमति को पाटकर सह-अस्तित्व के प्रति सहमति है, पर ऐसे दावों पर भरोसा करने की मंशा कभी दिखी नहीं। तो वस्तुतः चूक कहां हुई? गहराई से देखने पर यह पता चलता है कि इस वर्ग ने हमेशा ही जनता के विवेक पर संदेह किया। नागरिक स्मृति को सामूहिक रूप से एक गलत ऐतिहासिक चेतना से लैस किया जाता रहा।
खासकर मध्यकाल की राजकीय ज्यादतियों और उस ज्यादती के धार्मिक आधार को यह सोचकर छिपाने की कोशिश की गई, ताकि तात्कालिक सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने से बचाकर रखा जा सके। जिस प्रकार जाति आधारित भेदभाव की बात को स्वीकारे बिना समानता की सैद्धांतिकी पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता था, वैसे ही धार्मिक आधार पर हुई ज्यादती को स्वीकारे बिना वर्तमान के प्रति कोई सहमति बनना मुश्किल ही है।
इतिहासकार की यह जिम्मेदारी थी कि वे निर्दोष और निर्भीक भाव से वर्तमान को अतीत की सच्चाइयों से परिचित कराते। इन बौद्धिकों पर यह जिम्मेदारी थी कि इस सच्चे इतिहास को आधार बनाकर जनसमूह की ऐतिहासिक स्मृति को वर्तमान से विच्छिन्न करते। इस संदर्भ में एक अन्य उदाहरण लें तो जर्मनी के समाज ने भी ‘यहूदी घृणा’ के इतिहास और हिटलर की भूमिका की ऐतिहासिकता से भी ऐसे ही निजात पाई। जर्मन समाज ने उस पर बात की, उससे भागने की कोशिश नहीं की। किंतु हमने मुंह मोड़ लिया, हमने वर्तमान की स्थिरता की कीमत पर ऐतिहासिक सच्चाई को छिपाने की कोशिश की।
दुर्भाग्य से इसका असर यह हुआ कि वर्तमान तो स्थिर नहीं ही रह सका, साथ ही इससे जो शून्यता उपजी उसे कभी राज्य ने तो कभी समाज के किसी गैर-जिम्मेदार प्रतिनिधि ने भर दिया। इसका दुष्पपरिणाम आज हम सबके सामने है। ऐसे में ज्ञानवापी का स्थायी समाधान तलाशना है तो संबंधित समुदायों की चिंताओं को समझना होगा। विवाद के विषयों पर संवाद करना होगा। ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि जब देश आजाद हुआ और एक नए किस्म का राष्ट्र बना तो जाहिर तौर पर उसके सभी हितधारकों ने कुछ हासिल किया तो कुछ खोया भी। उदाहरण के लिए मुस्लिम समुदाय ने अत्यधिक ध्रुवीकृत समय में अल्पसंख्यक की हैसियत के साथ एक नए राष्ट्र को स्वीकारने का साहस किया तो हिंदू समुदाय ने धर्म के आधार पर नए राष्ट्र बन जाने के बावजूद सेक्युलर राज्य की निर्मिति के प्रति अपनी सहमति दी थी। उसके बाद की राह कैसी हो इस पर गंभीरता से सोचना होगा। संभव है कि ज्ञानवापी इसका प्रस्थान बिंदु हो।
[अध्येता, इतिहास]