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शपथ लीजिए, हम डे जीरो नहीं मनाएंगे.

प्रदीप शुक्ल, वाराणसी : डे जीरो क्या है? क्या आप इससे वाकिफ हैं? यदि नहीं तो तैयार हो जाइए,

By JagranEdited By: Published: Thu, 22 Mar 2018 01:07 PM (IST)Updated: Thu, 22 Mar 2018 01:07 PM (IST)
शपथ लीजिए, हम डे जीरो नहीं मनाएंगे.
शपथ लीजिए, हम डे जीरो नहीं मनाएंगे.

प्रदीप शुक्ल, वाराणसी : डे जीरो क्या है? क्या आप इससे वाकिफ हैं? यदि नहीं तो तैयार हो जाइए, जल्द ही तमाम दिवसों की तरह आप इसे भी मना रहे होंगे। यह दिन हमें विश्व जल दिवस पर जाहिर होने वाली चिंताओं से और आगे ले जाएगा। और हम तब भी नहीं चेते तो हो सकता है कुछ दशकों के बाद अपने शहर का ही डे जीरो मना रहे हों।

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बात हो रही है पानी की। यह नई बात तो बिल्कुल भी नहीं है। पिछले कुछ महीनों से एक वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत चर्चित हो रहा है। इस वीडियो में दक्षिण अफ्रीका के शहर केपटाउम में पानी खत्म होने की कहानी है। जिस दिन केपटाउन में पानी पूरी तरह खत्म हो जाएगा, उस दिन डे जीरो होगा। मतलब, तमाम आडियो-वीडियो सुनने-देखने के साथ ही आयोजन के लिए तैयार रहिए। गोष्ठिया-संगोष्ठिया, शपथ, मानव श्रखलाएं और फिर सरकार की कुछ नई नीतिया पानी बचाने के रूप में सामने आएंगी, लेकिन धरातल पर असर कितना होगा? इसकी कोई गारंटी नहीं ले सकता। केपटाउन के बहाने ही सही, बनारस के पानी संकट पर भी एक बार फिर से चर्चा की जा सकती है। दुनिया के सबसे प्राचीन जीवित इस शहर में भी पानी को लेकर हालात भयावह ही हैं। विश्व जल दिवस पर तमाम आयोजनों में कम होते पानी पर हमने चिंता जाहिर की। पिछले कई सालों से हम ऐसा ही करते आ रहे हैं, लेकिन समाधान की तरफ हमारे कदम मजबूती से क्यों नहीं बढ़ रहे हैं, अब इसके जवाब तलाशने चाहिए।

पिछले साल सितंबर में जलदान के जरिए जब जागरण ने पानी के संकट को काशीवासियों के सामने रखा तो हर कोई हैरत में था। प्रति वर्ष उन्तालीस से नब्बे सेमी. तक भूमिगत पानी नीचे जा रहा है। तीन नदियों के इस शहर में लोगों को पानी के लिए परेशान होना बता रहा है कि हम आने वाली पीढि़यों को क्या देकर जाने वाले हैं। वैसे गंगा को छोड़ दें तो दो-दो नदिया तो खत्म ही हो चुकी हैं। असी नाला बन चुकी है और वरूणा को प्रशासन बाहरी सौंदर्य से किसी तरह बचाने की जुगत करता दिख रहा है पानी उसमें भी नहीं है। जलीय जीवन तो पूरी तरह खत्म हो ही चुका है। फिर क्या? क्या हालात सुधर ही नहीं सकते?

ऐसा भी नहीं है। जलदान से एक आस तो जगी है। पानी के दुरुपयोग को लेकर लोग सजग तो हुए हैं। बस अब बारिश की बूंदों को सहजने का और इंतजाम कर लें, तो आने वाली पीढि़या हमें कोसेंगी नहीं। प्रकृति हमारे ऊपर मेहरबान है। हमारे शहर में हर वर्ष इतनी बारिश होती है कि यदि उसमें से पचास प्रतिशत पानी भी हम सहेजकर धरती को वापस दे दें, तो कभी केपटाउन नहीं बनेंगे। इसके लिए कोई पहाड़ भी नहीं खोदना है। जैसे हर चार-पाच साल में पीने के पानी के लिए रिबोर कराकर पाइप पाताल में ले जा रहे हैं वैसे ही एक बोर और करवाकर बारिश के पानी को पाताल में छोड़ दें।

अभी ठीक से गर्मी शुरू भी नहीं हुई है और हर तरफ पानी संकट की आहट सुनाई देने लगी है। हर साल हजारों लोग रिबोर करवा रहे हैं क्योंकि उनकी मोटर पानी छोड़ रही है। कारण पड़ोसी ने आपसे पचास-सौ फीट ज्यादा गहराई में बोरिंग कर ली है। इसको लेकर झगड़े भी शुरू हो चुके हैं। अगले कुछ महीने मारपीट से लेकर खून-खराबा तक की खबरें आप पढ़ेंगे। जल संकट का यह सिर्फ एक पहलू है। पानी संकट का खेती पर असर दिखने लगा है और भविष्य में यह उद्योगों को भी प्रभावित करेगा। इसलिए शपथ लीजिए, हम जीरो डे नहीं मनाएंगे। शपथ लीजिए, हम जलदान करेंगे।


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