स्वामी विवेकानंद ने तुलसी घाट पर सीखे थे पहलवानी के दांव-पेच
हिमांशु अस्थाना वाराणसी धर्म और सामाजिक सुधार के पुरोधा स्वामी स्वामी विवेकानंद अखाड़े मे
हिमांशु अस्थाना, वाराणसी : धर्म और सामाजिक सुधार के पुरोधा स्वामी स्वामी विवेकानंद अखाड़े में बड़े-बड़े पहलवानों को पटखनी देने का माद्दा रखते थे। वे जब भी काशी आए तुलसी घाट पर पहलवानी के दांव-पेच आजमाना नहीं भूले। युवावस्था के नरेन (बाद में नाम हुआ विवेकानंद) पहलवानी में काफी कुशल थे और मुकाबला कभी हारते नहीं थे।
काशी पहलवानी के लिए आदि काल से प्रसिद्ध रही है। विवेकानंद भी काशी की पहलवानी कला के मुरीद थे। बीएचयू के सामाजिक विज्ञान संकाय में हुए शोध के अनुसार विवेकानंद तीन बार बनारस आए और हर बार उन्होंने तुलसी घाट के अखाड़े पर दम-खम दिखाया। संकाय द्वारा 'काशी जर्नल आफ सोशल साइंस' में एक शोध प्रकाशित है। इसमें स्वामी विवेकानंद के काशी के जुड़ाव की बहुत सारी बातें सामने आई हैं। बीस से अधिक शोधार्थियों और प्रोफेसरों की टीम द्वारा तैयार यह शोध बताता है कि तुलसी घाट के ब्राह्माणों और विद्वानों से विवेकानंद ने भेंट की थी। वे वर्ष 1888 से 1890 के बीच तुलसी घाट पर स्थित एक अखाड़े पर तीन दिन तक रुके थे। शोध के अनुसार बनारसी पहलवानों से स्वामी जी ने पहलवानी के जो कई दांव-पेच सीखे, उनमें मुगदर, गदा, नाल, सांडी तोड़, बगलडूब, टंगी, जांघिया दांव आदि शामिल थे। यही नहीं, वे तुलसी घाट पर हनुमान जी की मूर्ति के सामने ध्यान करते और लोगों को अध्यात्म का संदेश देते थे।
सामाजिक विज्ञान संकाय के प्रमुख प्रो. कौशल किशोर मिश्रा के अनुसार स्वामी विवेकानंद काशी में काफी समय तक रहे। एक प्रसंग के अनुसार एक बार अखाड़े के महंत तुलसीराम गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। उन्हें घाट पर ध्यानमग्न एक संन्यासी दिखे। महंत ने जब संन्यासी से नाम पूछा तो उन्होंने स्वयं को 'विश्वेश्वर' बताया। दरअसल वे स्वामी विवेकानंद ही थे! इसका आभास महंत को बाद में चलकर तब हुआ, जब विवेकानंद दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गए।
तुलसी घाट से विवेकानंद का रहा खास नाता : स्वामी विवेकानंद इससे भिज्ञ थे कि 'रामचरित मानस' के चार अध्याय महाकवि तुलसीदास जी ने काशी में घाट के किनारे बैठकर ही रचे थे। बुद्ध से लेकर तमाम ऋषि-मुनि अपने ज्ञान की क्षुधा शांत करने यहीं आए। इसी सोच से स्वामी विवेकानंद भी काशी की ओर आकर्षित हुए और यहां की संस्कृति की छाप उन पर पड़ी जो जीवन भर अक्षुण्ण बनी रही।
हिदू विश्वविद्यालय की भी प्रेरणा मिली महामना को : प्रो. कौशल किशोर बताते हैं कि वर्ष 1889 में स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई योगानंद बीमार थे। उस समय स्वामी जी प्रयाग पहुंचे। उस दौरान वहां उनकी मुलाकात महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी से हुई। उस काल में भारतीय पुरातन अध्ययन और विज्ञान के तालमेल वाला शैक्षणिक संस्थान भारत में एक भी नहीं था। इसकी चिता स्वामी जी ने महामना से व्यक्त की थी। संभवत: इसी के बाद महामना के मन में हिदू विश्वविद्यालय की स्थापना की भावना प्रबल हो उठी।
बनारस की नगरवधू ने विवेकानंद को बताई संन्यासी की ताकत : स्वामी विवेकानंद की जीवनी के अनुसार जब शिकागो धर्म सम्मेलन से वह वापस भारत आए, तो जयपुर रियासत के राजा अजीत सिंह ने उनकी स्वागत में बनारस की एक मशहूर व खूबसूरत नगरवधू को बुला लिया। स्वामी जी को जब आभास हुआ कि कार्यक्रम में एक गणिका भी है तो उन्होंने समारोह का हिस्सा बनने से इन्कार कर दिया। इस पर राजा दुखी हो गए और अपनी अदाकरी के लिए चर्चित नगरवधू भी खुद को अपमानित महसूस करने लगी। क्षुब्ध नगरवधू ने तत्काल महाकवि सूरदास के भजन गाने शुरू कर दिए। उसके कंठ की मधुर आवाज कानों में पहुंचते ही स्वामी जी समारोह में आने से स्वयं को रोक नहीं सके। उनके दर्शन से नगरवधू की आंखों में आंसू आ गए। स्वामी जी के मन में भी यह अनुभूति उठी कि उनके ऊपर कोई प्रभाव या उनके विचारों में कोई विचलन तक नहीं आया! ऐसा तब था जबकि बड़े-बड़े धर्माचार्य उस नगरवधू के आगे हार मान चुके थे।
स्वामी विवेकानंद को उसी नगरवधू ने यह अहसास कराया कि आम जन हो या गणिका, संन्यासी पर तनिक भी कोई विचलनकारी प्रभाव नहीं पड़ता। यही वह समय था जब विवेकानंद को अपने संन्यासी होने का पहली बार भान हुआ, जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी जीवन-कथा में किया है।