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दादा-दादी की कहानियों से मिलता था संस्कार, अब बच्‍चों के लिए सोशल मीडिया ही सबकुछ

पहले दादा-दादी की गोद में लेटकर निश्चिंतता से बच्चे कहानियां सुना करते थे। इन कहानियों में घर के बड़े बच्चों को संस्कार का पाठ पढ़ाते थे।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Mon, 24 Feb 2020 09:30 AM (IST)Updated: Mon, 24 Feb 2020 09:30 AM (IST)
दादा-दादी की कहानियों से मिलता था संस्कार, अब बच्‍चों के लिए सोशल मीडिया ही सबकुछ
दादा-दादी की कहानियों से मिलता था संस्कार, अब बच्‍चों के लिए सोशल मीडिया ही सबकुछ

वाराणसी, जेएनएन। पहले दादा-दादी की गोद में लेटकर निश्चिंतता से बच्चे कहानियां सुना करते थे। अगर पड़ोस के बच्चे देखते कि दादाजी कहानी सुना रहे हैं तो वह भी आकर बैठ जाते और मगन होकर कहानी का आनंद लेते थे। राजा-रानी, संत और राक्षस, परियों की कहानी के साथ ही लकड़हारा की बुद्धिमता सहित अनेक कहानियां जो सुनने में तो अच्छी लगती ही थीं साथ ही नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ा जातीं। इन कहानियों में घर के बड़े बच्चों को संस्कार का पाठ पढ़ाते थे।

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बच्चे भी बड़ों के सानिध्य को पसंद करते थे। अपनी हर छोटी-बड़ी समस्या को लेकर झट से दादा-दादी के पास पहुंच जाते। चुटकियां बजाते समस्या का समाधान भी करते और भविष्य में गलती न दोहराने की सीख भी दे जाते।  मगर आधुनिकीकरण में बच्चों के लिए दादा-दादी, नाना-नानी से बढ़कर सोशल मीडिया हो गया है। घर में हर किसी के पास मोबाइल है जिसमें वे व्यस्त रहने लगे हैं। माता-पिता व्यस्त हैं। उन्हें बच्चों के लिए फुर्सत नहीं और बच्चे भी मोबाइल में ही खेलते हैं और उसी में कहानी पढ़ते हैं। मगर ये मोबाइल की कहानी उन्हें सीख नहीं देती, संस्कार नहीं देती, हर कदम साथ होने का वादा नहीं करती। ऐेसे में बच्चे अक्सर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर गलत राह पर निकल जाते हैं और यही कारण है कि संस्कार की कमी से अपराध भी बढ़ रहा है।

अब बड़े ही बच्चों को मोबाइल थमा रहे हैं जिससे वह समाज और अपनों से कट रहे हैं। उन्हें किसी से बात करने की जरूरत ही नहीं है। पहले संस्कारों का आदान-प्रदान स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत था अब वो बाधित हो गया है। पुरानी पीढ़ी के पास अनुभव, जीवन के मूल्य, सिद्धांत, ईमानदारी, ठहराव, मेहनत करने की भावना थी जो वे बच्चों से साझा करते थे। मगर अब बच्चों के पास वक्त ही नहीं है। ऐसे में इन चीजों को वह ग्रहण ही नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए संस्कार पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी में ट्रांसफर नहीं हो पा रहा है। बच्चे को अब दादा-दादी गलत बात के लिए रोकते हैं तो उन्हें बुरा लगता है। उनमें सुखवादी प्रवृत्ति प्रबल हो गई है। संस्कार , मूल्य, जीवन के सिद्धांत बोझ स्वरूप लग रहे हैं। कुल मिलाकर बच्चों को कुछ भी नहीं मिल पा रहा है।

बच्चे अपराध की तरफ बढ़ रहे

आज अभिभावक अपने माता-पिता को समय नहीं देते तो बच्चे भी वही सीख रहे हैं और अपने दादा-दादी को तरजीह नहीं देते। ऐसे में पुरानी पीढ़ी खुद को बोझ समझ रही है। संस्कारों का आदान प्रदान बाधित हो जाने से बच्चे अपराध की तरफ बढ़ रहे हैं। क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफार्म उनका मनोरंजन कर सकता है लेकिन सही-गलत की पहचान और संस्कार नहीं दे सकता जो पुरानी पीढ़ी अपने अनुभव और कहानियों के माध्यम से पहले देती थी।

- डा. रश्मि सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग, काशी विद्यापीठ।


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