गुप्त काल से काशी में मंदिर स्थापत्य की परंपरा, काशी का सबसे प्राचीन मंदिर है कर्दमेश्वर
मंदिर और मूर्ति स्थूल नही होते बल्कि भाव का स्वरूप होते हैं जिनकी सार्थकता तभी है जब वो समाज को मय से पर की ओर ले जाता है। मंदिर में देवस्वरूप के चिंतन की परिकल्पना होती है।
वाराणसी, जेएनएन। मंदिर और मूर्ति स्थूल नही होते बल्कि भाव का स्वरूप होते हैं, जिनकी सार्थकता तभी है जब वो समाज को मय से पर की ओर ले जाता है। मंदिर में देवस्वरूप के चिंतन की परिकल्पना होती है। यह बातें काशी कथा की ओर से आइआइटी, बीएचयू में आयोजित 14 दिवसीय कार्यशाला के तहत गुरुवार को प्रो. मारुति नंदन प्रसाद तिवारी ने कही।
काशी के मंदिर और स्थापत्य कला पर प्रकाश डालते हुए प्रो. तिवारी ने कहा कि काशी में मंदिर स्थापत्य का प्रारंभ गुप्त काल में शुरू हुआ। इससे पूर्व मौर्य काल में स्तूप बनाने के प्रमाण मिलते हैं। कंदवा में काशी का सबसे प्राचीन मंदिर 'कर्दमेश्वर' है, जिसका निर्माण 12वीं सदी में गहड़वाल शासकों ने कराया था। वहीं प्रो. कमल गिरी ने कहा कि काशी में भित्ति चित्रकला की परंपरा 19वीं शताब्दी के शुरुआत से रही है। इनके रंग, रूप, विषय और शैली में अंतर आता रहा, लेकिन परंपरा आज भी कायम है। कहा लोककला में भित्तियों पर बने चित्र, लकड़ी के खिलौने, मिट्टी के खिलौने आदि को देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि संबंधित चित्र किस विचारधारा, धर्म या संस्कृति से जुड़ा है। इन भित्ति चित्रों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कैसे एक बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी प्रतिमा शास्त्र के गूढ़ पक्षों को जानता है। यह ज्ञान इन कलाकारों को वंशानुगत रूप से परंपरा के रूप में मिला है।
अध्यक्षता प्रो. एसएन उपाध्याय, संचालन डा. सुजीत चौबे व धन्यवाद ज्ञापन डा. विकास सिंह ने किया। इस अवसर पर डा. अवधेश दीक्षित, आचार्य योगेंद्र, बलराम यादव अरविंद मिश्र, गोपेश पांडेय, दीपक तिवारी, उपेंद्र दीक्षित, विकास गुप्ता आदि थे।