Pitra Paksha 20201 : कभी वानप्रस्थी पुरजनों का अभ्यर्थना पर्व हुआ करता था पितृ पक्ष, वंशज स्वयं आते थे वयोवृद्ध के पास
पितृपक्ष दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व श्राद्ध निवेदन का एक भाव प्रधान संस्कार है। यह एक स्थापित तथ्य है। विधाना की सर्व स्वीकार्यता के बाद भी तर्कों के खंडन-मंडन की समृद्धि परंपरा वाली नगरी काशी में इस मान्यता के समानांतर एक और विचार प्रवाह सर्वदा से प्रबल रहा है।
वाराणसी समाचार, कुमार अजय। पितृपक्ष दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व श्राद्ध निवेदन का एक भाव प्रधान संस्कार है। यह एक स्थापित तथ्य है। इस विधाना की सर्व स्वीकार्यता के बाद भी तर्कों के खंडन-मंडन की समृद्धि परंपरा वाली नगरी काशी में इस मान्यता के समानांतर एक और विचार प्रवाह सर्वदा से प्रबल रहा है। इस धारा के अनुसार द्वापर युग के उत्तरार्द्ध काल से ही यह अवसर एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भी प्रचलित व मान्य हुआ करता था। इस विशिष्ट दृष्टि विधाना के अनुसार जब भरत खंड (भारत वर्ष) में समाज आश्रम विधाना से संचालित था। तब पितृ पक्ष का नियमन भी तर्पण व अर्पण दो भागों में विभक्त हुआ करता था।
तर्पण की रीति जहां दिवंगत पुरखों के परितोष के निमित्त जल दान-पिंड दान तथा संपूर्ण श्राद्ध के विधानों का प्रतिनिधित्व करती थी। वहीं अर्पण की नीति के तहत नगरों व गांवों के गृहस्थ आश्रमी वर्षा काल की कष्ट साध्य दिनचर्या से निवृत हुए अपने उन वयोवृद्ध वानप्रस्थी पुरजनों के वर्ष भर के योगक्षेम की चिंता करते थे। जो ऋतु परिवर्तन के बाद वनों की सघन उपत्यकाओं से बाहर निकलकर नगर व गांव के सिवानों अथवा नदी के तट पर इकट्ठा होते थे। संकल्प के चलते चूंकि उनका बस्तियों में प्रवेश वर्जित था। अतएव उनके वर्षभर के अन्न-वस्त्रादि के उपहार के साथ उनके कुल वंशज स्वयं उनके पास आते थे। उनका कुशलक्षेम लेते थे। श्रद्धा निवेदित कर उनका आशीर्वाद पाते थे। दर्शन शास्त्र के अधेता प्रो. देवव्रत चौबे का कहना है कि वानप्रस्थी परिवारिजनों के प्रति श्रद्धा पूर्वक वस्तु निवेदन भी इस व्यवस्था के टूटन के बाद मात्र श्राद्ध तर्पण व पिंडदान तक ही सीमित रह गया है। प्रो. चौबे बताते हैं कि विभिन्न ग्रन्थों में यत्र-तत्र मिलने वाले प्रमाणों के अनुसार काल क्षरण के क्रम में क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास व वानप्रस्थ की व्यवस्था जब लुप्त हो गई तो यह व्यवस्था भी स्वतः भांग होकर बिखर गई। जो कुछ बचा वह अब दिवंगतों के नाम श्रद्धादि अनुष्ठानों के रूप में शेष प्रतीक रह गया है।
ऋतुकाल से जुड़ी उत्सवी श्रृंखलाएं भी एक सामाजिक व्यवस्था
इन विद्वान अध्येताओं के अनुसार अनेक पौराणिक ग्रथों में इस तरह के प्रमाण प्राप्त होते हैं जिनके अनुसार पितृ पक्ष से परिवर्तित ऋतु काल से जुड़ी अन्य उत्सव श्रृंखलाएं भी इसी प्राचीन समाज व्यवस्था की एक अंग रही हैं। उदाहरण के तौर पर पितृ पक्ष के पश्चात जब पितृ कुल वापस वनाश्रमों की ओर लौट जाती थी तो स्वाभाविक रूप से उदासी का एक शून्य उपस्थित हो जाता था। स्वाभाविक तौर पर इस मायूसी का सबसे सघन असर माताओं के दिल पर होता था। ऐसे में उनके प्रमोदन के लिए मात्र कुल को समर्पित नवरात्र महोत्सव के आयोजन का औचित्य सहज ही समझा जा सकता है। मौसम और अनुकूल होने पर वित्त उपार्जन के निमित्त धन देवता कुबेर व वैभव लक्ष्मी के पूजन पर्व दीपावली का आयोजन भी स्वाभाविक और सर्वदा समीचीन है। कार्तिक शुक्ल पक्ष से ही व्यापारिक यात्राओं की तैयारी शुरू हो जाती थी। कार्तिक मास में जब ये गृहस्थ व्यापार के लिए यात्रा पर निकलते थे तो उनके पथ-प्रदर्शन की कामना से आकाश दीपों को प्रकाशित करने की परंपरा भी निश्चित तौर पर इसी व्यवस्था के विशिष्ट भाव को प्रदर्शित करती है।
अर्पण व तर्पण का भेद
ख्यात ज्योतिषचार्य व शास्त्र वेत्ता पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार इस विभाजन रेखा को सहजता से समझने और समझाने के लिए अर्पण व तर्पण का भेद ज्ञान बेहद जरूरी है। श्राद्ध व तर्पण के मंत्रों में भी जहां वनवासी ऋषियों को तंदुल (चावल) व यव (जौ) के अर्पण का विधान है जो इस विचारधारा को पुष्ट करता है। दिवंगत पितरों के लिए दक्षिणाभिमुख होकर तिलोदक का तर्पण मात्र ही मान्य है।