बनारसी व्यंग्य की धार के मुरीद थे पंतजी
कुमार अजय वाराणसी स्वयं छायावाद का प्रतिनिधि कवि होने के बाद भी यशस्वी कवि सुमित्रानंदन पंत अन्य विधाओं में दक्ष समकालीन रचनाकारों व नवोदित कवियों को उनकी अद्यतन रचनाओं पर पैनी नजर रखते थे।
कुमार अजय, वाराणसी
स्वयं छायावाद का प्रतिनिधि कवि होने के बाद भी यशस्वी कवि सुमित्रानंदन पंत अन्य विधाओं में दक्ष समकालीन रचनाकारों व नवोदित कवियों को उनकी अद्यतन रचनाओं पर पैनी नजर रखते थे। उन्हें पढ़ने के बाद रचनाकारों की प्रशंसा में कतई कृपणता नहीं। उदार मन व मुक्त कंठ से रचना की प्रशंसा और साथ में राय-मशविरों की एक छोटी-सी पुड़िया भी। कवि सम्मेलनों में प्रभावी रचनाओं की उपस्थिति पर भी प्रोत्साहन के लिए पंतजी की आवाज सबसे ऊंची होती थी।
ख्यात संपादक तथा व्यंग्यकार स्मृतिशेष मोहनलाल गुप्त (भैयाजी बनारसी) के पुत्र राजेंद्र गुप्त पिता के मुख से सुनी हुई को शब्द देते हुए बताते हैं कि वे अक्सर कहा करते थे कि किसी की भी रचना पर शुभकामनाएं लुटाने वाला जो औदार्य पंतजी में था, वह अन्यत्र दुर्लभ था। वे बकायदा पत्र लिखकर जब युवा रचनाकारों का हौसला बढ़ाते थे तो इतने बड़े रचनाकार के हस्ताक्षर को देख प्रशंसित रचनाकारों का उत्साह ड्योढ़ा हो जाता था। बताते हैं राजेंद्र कुमार, काशी में उन दिनों व्यंग्य विधा का रचनाकर्म अपने उत्कर्ष पर था। भारतेंदु के तिरोधान के बाद उनकी पिगली धार वाली शैली के उत्तराधिकारी बने काशी के तीन तिलंगे जिन्हें कृष्णदेव प्रसाद गौड़ (बेढब बनारसी), पांडेय बेचन शर्मा (उग्र) व अन्नपूर्णानंद आगे चलकर इस त्रयी की जगह ली हास्य-व्यंग्य के पंच महाभूतों ने। बेढबजी तो पहले से ही अपने स्थान पर थे, नई जगहें भरीं भैयाजी बनारसी, शिवप्रसाद मिश्र (रुद्र काशिकेय), कांतानाथ पांडेय (चोंच) व काशीनाथ उपाध्याय (बेधड़क बनारसी) ने। पांचों ही सुमित्रानंदन पंत के निरंतर संपर्क में रहे और उनका स्नेह पाते रहे। वह ऐतिहासिक कवि सम्मेलन
काशी के साहित्यप्रेमियों की बड़ी इच्छा थी देश के दिग्गज कवियों के काशी में महासंगम की। सौभाग्य से आकाशवाणी ने यह अवसर उपलब्ध करा दिया। एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन करके। इसमें पंतजी के अलावा महादेवी वर्मा की मंच पर मौजूदगी ने आयोजन को ऐतिहासिक बना दिया। इस सम्मेलन में भी अपनी सहज प्रस्तुति के अनुसार पंतजी ने काशी के व्यंग्यकारों को खूब सराहा और उनके इन चंद पलों को यादगार बना दिया। ---------------------
..और काशी पहुंचकर गुसाई दत्त हो गए सुमित्रानंदन पंत
शैलेश अस्थाना, वाराणसी
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प्रकृति के सुकुमार कवि के साहित्यिक-सामाजिक व्यक्तित्व की गढ़न में बनारस का भी योगदान था। यहीं पहुंचकर उन्होंने अपना नाम गुसाईदत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया था। अल्मोड़ा के कैसोनी गांव में 20 मई 1900 को जन्मा बालक युवावस्था की दहलीज पर पांव रखते ही 18 वर्ष की अवस्था में काशी आ गए। यह जीवन का वह दौर होता है जब व्यक्तित्व के गठन में कल्पनाओं और रंगीन सुनहरे सपनों का विशेष योगदान होता है, उसी काल में पहाड़ों के सौंदर्य को मन में बसाए गुसाईदत्त अपने बड़े भाई के साथ अध्ययन के लिए काशी में गंगा की कल-कल लहरों के किनारे आ पहुंचे थे। मैट्रिक की पढ़ाई के लिए क्वींस कालेज में उन्होंने प्रवेश लिया। यहां के वातावरण ने उनके मन में साहित्य रचना के बीज बोए तो समय के साथ हिदी साहित्य ने उन्हें हिदी का वर्ड्सवर्थ बना दिया। यहीं उनका परिचय सरोजिनी नायडू और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं से हुआ तो कविता प्रतियोगिताओं में भाग लेकर उन्होंने अपनी धाक जमाना शुरू कर दिए थे। 1918 से 1920 तक यहां अध्ययन के बाद वह आगे की शिक्षा के लिए प्रयाग चले गए।