Move to Jagran APP

Pandit Chhanu Lal Mishra : शास्त्रीय संगीत की किसी बंदिश की तरह कानों से होते हृदय की कोटरों में समा जाती

पं. छन्नू लाल मिश्र की रगों में लोक बसा है। यह उनकी गायकी में भी परिलक्षित होता है। तपस्वी सी मुद्रा चेहरे पर तेज और वाणी में गजब का ओज। सामान्य बातचीत भी तानपुरे की झंकार का अहसास कराती है।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sun, 14 Aug 2022 09:21 PM (IST)Updated: Sun, 14 Aug 2022 09:21 PM (IST)
Pandit Chhanu Lal Mishra : शास्त्रीय संगीत की किसी बंदिश की तरह कानों से होते हृदय की कोटरों में समा जाती
संगीत घराने की शान पद्मविभूषण पं. छन्नू लाल मिश्र

वाराणसी, प्रमोद यादव। शहर के बीच तंग गली में एक बेहद सामान्य सा मकान। उसके एक छोटे से कमरे में जमीन पर आसन जमाए असामान्य व्यक्तित्व। तपस्वी सी मुद्रा, चेहरे पर तेज और वाणी में गजब का ओज। सामान्य बातचीत भी तानपुरे की झंकार का अहसास कराती है।

loksabha election banner

शास्त्रीय संगीत की किसी बंदिश की तरह कानों से होते हृदय की कोटरों में समा जाती है, लेकिन उसमें लोक भी दपदपाता है। यह साफ बताता है कि आप बनारस संगीत की मजबूत भीत (दीवार) पं. छन्नू लाल मिश्र के सामने बैठे हैं। खास यह कि देश का दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्मविभूषण से नवाजे जा चुके इन विश्व विख्यात कलाकार के आसपास भी इसका अभिमान फटक नहीं पाता है।

वास्तव में पंडित जी की रगों में लोक बसा है। यह उनकी गायकी में भी परिलक्षित होता है। इसका ही परिणाम है कि कठिन रागों से सजी कजरी, चैती, ठुमरी, दादरा हो या शुद्ध शास्त्रीय संगीत, पीले फूले से ढके सरसो के खेतों से उठने का आभास कराता है या अमराई से महमह आम के बगीचों में ले जाता है।

पंडित जी जब खेलें मसाने में होली दिगंबर... को स्वर देते हैं तो सामने बैठे श्रोता में भोले बाबा के गण का भाव भरते हुए उसे शिव लोक का दर्शन करा देते हैं। रामचरित मानस की चौपाइयों को सुरों में पिरोते हैं तो उसमें घुले लोक लोक को यथावत सामने रखते हुए त्रेता की सैर कराते हैं। होली खेलत नंद कुमार... सुनाते समय द्वापर में प्रवेश कर जाते हैं। उसमें खुद अकेले ही गोते नहीं लगाते, इस भाव गंगा में श्रोताओं को भगवान शिव के गण, बाल-गोपाल या गोपियों की तरह साथ ले जाते हैं।

वास्तव में आजमगढ़ के छोटे से गांव हरिहरपुर में 15 अगस्त 1936 को जन्मे पंडित जी को संगीत विरासत में जरूर मिला, लेकिन उनके जीवन संघर्षोंं पर नजर डालें तो चौंक जाएंगे यह जानकार कि कैसे दुनियावी दुश्वारियों के बीच यानी कांटों के बीच यह संगीत का गुलाब खिला। वह खुद कहते हैं कि हमारा जीवन बहुत तकलीफ में बीता। तीन भाई और एक बहन।

घर में सात पीढ़ियों से संगीत था तो कह सकते हैं सरगम उनकी रगों में है, धड़कनों में है। इसका ही प्रभाव रहा कि कठिनाइयों के बाद भी वागीश्वरी महाराज की छठवीं पीढ़ी के पंडित जी ने शास्त्रीय संगीत चुना। पं. छन्नूलाल बताते हैं कि बचपन में दो जून की रोटी के लिए पैसा न होता था। पिताजी बद्री महाराज मुजफ्फरपुर में होते, वहां से हर माह कमाई का दस रुपये भेजते। इससे ही 12 लोगों के परिवार का पखवारे भर रोटी का जुगाड़ होता। सस्ती का दौर जरूर था, लेकिन एक रुपये का 12 किलो चावल आता।

पैसा खत्म हो जाए तो दाल कहां से आए। ऐसे में रोटी और किसी बगीचे से तोड़ कर लाई गई इमली की चटनी से रियाज भर ऊर्जा का जुगाड़ हो जाता था। सात साल की उम्र में पिता बद्री प्रसाद मिश्रा से संगीत सीखा और राम भक्त मां से सुंदरकांड सुनते हुए कब रामायण की चौपाइयां कंठस्थ हो गईं पता ही न चला। गांव में किसी पेड़ के नीचे बैठ जाते तो बड़े भाव से उसे लोगों को किसी मानस मर्मज्ञ कथा व्यास की तरह सुनाते और विभोर कर जाते। इसे उनकी संगीत यात्रा का पहला सोपान कह सकते हैं जिसने उनमें आत्मविश्वास भरा।

यही कोई नौ साल के रहे होंगे जब किराना घराने के 'उस्ताद अब्दुल गनी खान' और फिर ठाकुर जयदेव सिंह जैसे संगीत के वट वृक्ष की छांव मिली। युवावस्था में पं. छन्नूलाल मुजफ्फरपुर से संगीत के शहर बनारस आए तो यहां भी राह आसान न थी। नौकरी की, ट्यूशन पढ़ाया, सड़कों की खाक छानी, क्या-क्या न झेला लेकिन अपनी मेधा व सिद्धहस्तता के बूते छा गए। कह गए लोगों के दिलों में समा गए। इसका श्रेय वह बड़ी ही सहजता से माता-पिता, गुरुजनों व बाबा श्रीकाशी विश्वनाथ को देते हैं।

वास्तव में यह भोले शंकर से मिला भोला भाव ही है जो आज ऊंचाइयों को छूने के बाद भी पंडित जी उतने ही सहज और सरल हैं। जमीन पर पतला सा बिछौना और भोजन में खिचड़ी। न भाव बदला और न ही स्वभाव। उन्होंने देश-विदेश और फिल्मों में भी स्वर दिए और जहां सुर लगाया भावों से भर दिया। उन्हें किराना व बनारस घराने की गायकी का सिरमौर कहा जाता है, लेकिन घराने को लेकर पं. छन्नूलाल की राय कुछ अलग ही है। कहते हैं, घराना-वराना कुछ नहीं होता। घराना तो सिर्फ भगवान शिव का है।

उन्होंने ही स्वर और शब्द रचना की तो घराना तो उनका ही हुआ। भला स्वर और लय पर किसी घर का अधिकार कैसे हो सकता है। बेबाकी से कहते हैं, शहर के नाम से घराना नहीं होना चाहिए। किसी को बुरा लगे या भला हमारा तो यही मानना है। छोटे से गांव से संगीत के आसमान पर पहुंचे पंडित जी अपनी संगीत यात्रा से पूरी तरह संतुष्ट नजर आते हैं। कहते हैं, अब कोई ख्वाहिश नहीं।

इलाही, कोई तमन्ना नहीं जमाने में हमने सारी उमर गुजारी है अपनी गाने में। हमारा सारा जीवन संगीत में रह गया। इसके अलावा कोई तमन्ना नहीं कि राजा हो जाएं, मकान बन जाए या खूब पैसा आ जाए। जमीन पर सोते हैं, खिचड़ी खाते हैं, सबसे प्रेम से मिलते हैं। कोई घमंड नहीं है, न पद्मविभूषण होने का और न ही मोदी जी के संसदीय चुनाव में प्रस्तावक होने का। कभी कभी सोचता हूं कौन सी तमन्ना बाकी है। कुछ तो है जो बाकी है, लेकिन उम्मीद किसी से नहीं। कारण, जो त्रिभुवन सम मारि जियावा... यानी जो सारे संसार को मार-जिला सकता है, दे भी वही सकता। आदमी क्या है, आदमी सिर्फ बहाना है, खबर देता है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.