Olympic Day : आजमगढ़ के भटठा मजदूर के बेटे दिव्यांग अजय ने मेडल की लगा दी झड़ी
आजमगढ़ के भटठा मजदूर के बेटे अजय मौर्य अब तक कई राष्ट्रीय पैरा एथेलेटिक्स चैंपियनशिप में अब तक दो स्वर्ण दो रजत और 10 कांस्य पदक अपने नाम कर चुके हैं।
आजमगढ़ [अनिल मिश्र]। कहते हैं कि अगर इरादे बुलंद हों तो मंजिल एक न एक दिन मिल ही जाती है। इस बात को सच कर दिखाया है एक भटठा मजदूर के बेटे अजय मौर्य ने। बचपन में दोनों हाथ कट जाने के बाद भी उनका जुनून बुलंदियों को छूने को हमेशा बेताब रहा। यही कारण रहा कि बिना किसी कोच के ही अब मेडल की झड़ी लगा दी। अब तक कई राष्ट्रीय पैरा एथेलेटिक्स चैंपियनशिप में अब तक दो स्वर्ण, दो रजत और 10 कांस्य पदक अपने नाम कर चुके हैं।
तहसील सगड़ी के देवारा क्षेत्र के सोहराभार गांव निवासी किसान व भटठा मजूदर रामविनय मौर्य व गृहणी सुभागी देवी के पांच पुत्र व दो बेटियों में सबसे बड़े अजय मौर्य बचपन से ही बड़े मेधावी थे। वे स्कूल में पीटी के मानीटर थे। दौड़ में उनकी रुचि थी। लेकिन जब कक्षा सात में पढ़ते थे, उसी समय धान की कुटाई करने वाली मशीन में इनका दाहिना हाथ फंस जाने से कट गए। स्वस्थ होने के बाद पुन: इनका जज्बा कायम रहा। उसी समय देवारा में बाढ़ आई तो इनका गांव डूब गया। माता-पिता और भाई-बहन तो महुला-गढ़वल बांध पर शरण लिए लेकिन दौड़ में रुचि होने के कारण शहर के ब्रह्मस्थान स्थित ननिहाल चले आए।क्योंकि ब्रह्मस्थान पर ही सुखदेव पहलवान स्टेडियम था, जहां इन्हें दौड़ लगाने के लिए सुविधा मिलती। कोच का भी सहयोग मिलता। लेकिन वाह से व्यवस्था। अजय को कोच का सहारा नहीं मिला। बिना जूते के ही ट्रैक पर रफ्तार भरते रहे।लगन व संघर्ष रंग लाया। उसके बाद 2004 मेें बंगलुरू (बंगलौर) में रजत पदक, पंचकुला हरियाणा, 2005 में कोयंबटूर में अपनी प्रतिभा का शानदार प्रदर्शन कर चुके हैं। 2006 में क्वालांमपुर में आयोजित एशियाड में चौथे स्थान पर रहे। यहां 47 देशों के खिलाड़ी शामिल हुए थे। 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य पुरस्कार से नवाजा था। अजय के जोश की यह हाल है कि लॉकडाउन में साधन न मिलने पर अपने पैतृक गांव सोहराभार तक 45 किमी की दूरी दौड़ कर पूरी कर लेते हैं।
यहां भी सफलता मिलते-मिलते रह गई
2005 में जर्मनी में आयोजित इंटरनेशनल पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में मुंबई एयपोर्ट से वापस आना पड़ा।क्योंकि खेल में शामिल होने के लिए पैसा जमा नहीं हो पाया था। 2008 में बीङ्क्षजग में आयोजित ओलंपियाड में मात्र दो सेकेंड की दूरी से क्वालीफाई नहीं कर सके, लेकिन इसका मलाल इन्हें नहीं हैं।
शिक्षा अनुदेशक की नौकरी से करना पड़ा संतोष
अजय मौर्य बताते हैं कि शुरू से ही शासन-प्रशासन स्तर से उनका सहयोग नहीं मिला। कुछ साल पहले जिले में नौकरी भी मिली तो शिक्षा अनुदेशक की। जबकि खेल कोटे व दिव्यांग कोटे से उन्हें एक अच्छी नौकरी मिल सकती थी। बताया कि कोच के रूप में बलिया के कोच गोविंद जी गुप्ता ने दिप्ट दिए। जबकि अंतरराष्ट्रीय बैडङ्क्षमटन कोच अजेंद्र राय ने हमेशा प्रोत्साहित किया। साथ ही चैंपियनशिप में शामिल होने के लिए लोगों के सहयोग से आर्थिक मदद भी करते हैं।