ओ! नीलकंठ जा 'नीलकंठ' को दे आ यह संदेश, भावनाओं से भीगे बंगीय दुर्गोत्सव की एक और अनूठी मासूम रस्म
शक्ति आराधन पर्व दुर्गोत्सव पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। यह बात और है कि शास्त्रीय विधानों को छोड़ कर लोकाचारी रस्म-रिवाजों के धरातल पर इस भाव प्रधान उत्सव का रस-रंग बदल ज
वाराणसी [कुमार अजय]। शक्ति आराधन पर्व दुर्गोत्सव पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। यह बात और है कि शास्त्रीय विधानों को छोड़ कर लोकाचारी रस्म-रिवाजों के धरातल पर इस भाव प्रधान उत्सव का रस-रंग बदल जाता है। गुजरात में इसका रूप गरबा-डांडिया जैसे रस-रंगीय उत्सव का है तो पंजाब में यह शौर्य प्रदर्शन का एक अवसर बन जाता है। दुर्गोत्सव की कल्पनाकार बंगाल की धरती पर यह पर्व त्योहार से कहीं आगे एक निपट घरेलू आयोजन का पर्याय बन जाता है। एक तरफ शास्त्रीय विधि-विधानों का अनुशासन तो दूसरी तरफ लोकाचार की चौखट पर दुलारी बिटिया के पीहर आगमन का मांगलिक प्रयोजन बन कर हर श्रद्धालु के अंतस को भावों से भिगो जाता है।
कहते हैं काशी बंगीय समाज के वयोवृद्ध ओहदेदार अशोक कांति चक्रवर्ती- 'हमारे लिए वैदिक अनुष्ठानों के दायरे से बाहर यह एक विशुद्ध पारिवारिक उत्सव है जिसमें हम देवी दुर्गा के कैलाश (ससुराल) से काशी (मायके) आने की खुशियां मनाते हैं। घर की बड़ी बेटी की तरह मां का सत्कार कर पूरे तीन दिन उनकी अभ्यर्थना में बिताते हैैं। इसीलिए बंगीय पूजा में कोलार बोऊ पूजन, दर्पण दर्शन, शृंगार सत्र, सिंदूर खेला और नीलकंठ मोचन जैसी लोकाचारी रिवाजों की बहुलता है।
इनमें सबसे भावना प्रधान रिवाज है विजयदशमी को पक्षी उन्मोचन की। रस्म के मुताबिक सभी पूजा आयोजन समितियों में नीलकंठ पक्षी की चोंच को गंगाजल से भरकर उन्हें उन्मुकत आकाश की उड़ान देती है। माना यह जाता है कि तीन दिनों के आतिथ्य से अघाई देवी दुर्गा दशमी को वापस कैलाश की ओर प्रस्थान करती हैैं। श्रद्धालुओं की मासूम सोच यह कि भोला पंछी नीलकंठ काशी से उड़ कर कैलाश शिखर तक जाता है। मां के पहुंचने से पहले कैलाशवासी भगवान शिव को मां के पीहर से ससुराल वापसी की सूचना से अवगत कराता है।
इस रस्म का जिक्र करते हुए अशोक दा खुद भावुक हो जाते हैं। पंक्षी के दृष्टिपथ से ओझल हो जाने के बाद हम मान लेते हैं कि मां कैलाशवासिनी हुईं। इस भावपूर्ण विदा के बाद सभी भीगी पलकों से उत्तर दिशा की ओर निहारते हुए प्रणाम करते हैं। घुरे ऐशो (फिर आना मां) की कामना दिलों में बसाए हुए बोझिल कदमों से घर लौट जाते हैं। सिफत यह कि इस कथा के विराम लेने तक बुजुर्गवार अशोक दादा की आवाज भर्रा जाती है। चेहरे पर विषाद की परछाई, आंख आसुओं से डबडबा जाती है।