Move to Jagran APP

#होली आई रे : प्राकृतिक रंग कर रहा दंग, साेनभद्र के अादिवासियों का अनोखा होली का ढंग

फूलों से रंग बनाने का तौर तरीका भले ही आपको आधुनिक लगे मगर सोनभद्र के आदिवासी इलाकों में आज भी होली के लिए परंपरागत तरीके से प्राकृतिक रंग बनाने का काम जारी है।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 15 Mar 2019 05:43 PM (IST)Updated: Thu, 21 Mar 2019 08:05 AM (IST)
#होली आई रे : प्राकृतिक रंग कर रहा दंग, साेनभद्र के अादिवासियों का अनोखा होली का ढंग
#होली आई रे : प्राकृतिक रंग कर रहा दंग, साेनभद्र के अादिवासियों का अनोखा होली का ढंग

सोनभद्र [आनंद चतुर्वेदी]। रसायनों की दुनिया से मुक्ति पाने के लिए अब फूलों से रंग बनाने का तौर तरीका भले ही आपको आधुनिक लगे मगर सोनभद्र के आदिवासी इलाकों में आज भी होली के लिए परंपरागत तरीके से प्राकृतिक रंग बनाने का काम जारी है। आधुनिकता की चकाचौंध से दूर सोनांचल के आदिवासी क्षेत्रों में आज भी प्राकृतिक रंगों से परंपरागत होली खेली जाती है। होली के लिए रंग बनाने की तैयारी यहां एक माह पहले से ही शुरू कर दी जाती है। पलाश के फूलों को तोड़कर उसे सुखाने के साथ ही रंग बनाने के काम में बच्चों से लेकर बूढ़े तक जुट जाते हैं।

loksabha election banner

वसंत ऋतु के आगमन का प्राकृतिक रूप से संदेश देने वाले पलाश के फूल से रंग बनाने की प्रक्रिया इनदिनों वनांचल में शुरू हो गई है। जंगलों में इनदिनों वसंती मनोरमा बिखेर रहे पलाश के फूलों को जुटाने में वनवासियों का पूरा कुनबा लगा हुआ है। एक ओर शहरी आवरण का चोला ओढ़े उपनगर, नगर एवं महानगरों में केमिकल युक्त रंगों की पूर्ति के लिए तमाम फैक्ट्रियों में केमिकलयुक्त चटख रंग तैयार कर उसकी खेप बाजारों में पहुंचाने का सिलसिला शुरू है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से होली खेलने के लिए वनवासी बच्चे पूरे मनोयोग से लगे हुए हैं। शहरों में महंगे दाम पर बिकने वाले एवं त्वचा के लिए बेहद हानिकारक रंगों की बजाय दुद्धी के दुरूह व दुर्गम क्षेत्रों की आबादी प्राकृतिक रंग से होली खेलने की तैयारी में है। करीब एक माह से वातावरण को लालिमा एवं वासंती चादर ओढ़ाने वाले पलाश के फूलों को एकत्र करने में इनदिनों वनवासियों का पूरा कुनबा उत्साह के साथ जुटा नजर आता है।

ऐसे बनता है रंग : बघाडू गांव में एक पेड़ पर चढ़कर पलाश (टेशू) का फूल तोड़ रहे किशोर पवन ने बताया कि वह इसका रंग बनाकर उसी से होली खेलते हैं। इसी तरह नगवां गांव की कक्षा आठ में पढ़ने वाली छात्रा आरती व अाराधना ने बताया कि होली से करीब दस-पंद्रह दिन पूर्व फूल को तोड़कर उसे तेज धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद इन्हें तीन दिन तक पानी में डालकर गलाया जाता है। उसके बाद और होली से एक दिन पहले बड़े-बड़े कड़ाहों में इन फूलों को गरम पानी में डालकर उबाला जाता है। इसके बाद रंग केसरिया आए और उसकी पकड़ मजबूत हो, इसके लिए इसमें कुछ मात्रा में प्राकृतिक चूना मिलाया जाता है। इस विधि से चटख केसरिया रंग तैयार हो जाता है। आवश्यकता अनुसार पानी मिलाकर इसका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। आदिवासी ग्रामीणों का मानना है कि पलाश के फूलों से होली खेलने से चर्म रोग भी समाप्त हो जाते हैं।

नहीं होगा त्वचा रोग : बुजुर्गों का मानना है कि इस प्राकृतिक रंग से होली खेलने वाले लोगों को कभी भी त्वचा रोग नहीं होता, बल्कि उसमें चमक भी आ जाती है। दशई राम ने इसके औषधीय गुण के बारे में बताया कि हम लोग बचपन से इसी तरह होली खेलते आ रहे हैं। बताया कि नारी को गर्भधारण करने के साथ गाय के दूध के साथ टेशू के कोमल पत्ते पीस कर पिलाने से बच्चा स्वस्थ जन्म लेता है। इसी पलाश के बीजों को मात्र लेप करने से महिलाएं अनचाहे गर्भ से बच सकती हैं। नेत्रों की ज्योति बढ़ाने के लिए पलाश फूल के रस में शहद मिलाकर आंखों में काजल की तरह लगाने से काफी लाभ होते हैं। इसके बीजों को नीबू के रस में पीस कर लगाने से दाद, खाज, खुजली में आराम मिलता है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.