भगवान शंकर की मोक्षनगरी काशी में महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर नहीं ठंडी होतीं चिताएं
मोक्षनगरी काशी की मान्यता महाश्मशान की है। शास्त्रों में काशी के बारे में लिखा गया है कि काश्यांमरणान्मुक्ति। अर्थ यह है कि काशी में मरण से मुक्ति मिलती है।
वाराणसी [प्रमोद यादव]। मोक्षनगरी काशी की मान्यता महाश्मशान की है। शास्त्रों में काशी के बारे में लिखा गया है कि काश्यांमरणान्मुक्ति:। अर्थ यह है कि काशी में मरण से मुक्ति मिलती है। शास्त्रीय मान्यता है कि देवाधिदेव महादेव खुद यहां महाश्मशान मणिकर्णिकाघाट पर भक्तों को तारक मंत्र देकर आवागमन के बंधनों से मुक्त करते हैैं। इससे ही इस घाट की महत्ता स्वत: स्पष्ट हो जाती है। अन्य महाश्मशान घाटों पर रात्रि में शवदाह का भले परहेज हो लेकिन यहां 24 घंटे चिता की अग्नि जलती रहती है। इस घाट से जु़ड़़ी एक कथा यह भी है कि सत्यवादिता के लिए ख्यात राजा हरिश्चंद्र ने डोमराजा के हाथों खुद को बेचा।
काशी के पंच तीर्थों के बीच पडऩे वाला यह घाट सृजन और विध्वंस का प्रतीक
काशी के पंच तीर्थों के बीच पडऩे वाला यह घाट सृजन और विध्वंस का प्रतीक है। रंगभरी एकादशी पर गौरा को गौना का लेने आने के बाद महादेव दूसरे दिन यहां घाट पर गणों के साथ चिता भस्म की होली खेलने आते हैैं और राग-विराग के एकाकार स्वरूप का संदेश देते हैैं। महाश्मशान मणिकर्णिका को लेकर मान्यता है कि गंगा के धरती पर अवतरण से पूर्व भी इसका अस्तित्व था। मान्यता है कि भगवान शंकर ने काशी बसाने के बाद भगवान विष्णु को सृष्टि पालन के लिए कहा। यहा हरि का चक्र गिरने से कुंड का आकार बना जिसे चक्रपुष्करिणी कहा गया। उन्होंने यहा 11 वर्षों तक तपस्या की और उनके पसीने से कुंड भर गया। भगवान शिव, देवी पार्वती संग यहां पहुंचे तो खुशी से झूम उठे। इससे उनकी कर्णिका (कान के कुंडल) की मणि कुंड में गिर गई। इसके बाद से ही इसे चक्रपुष्करिणी मणिकर्णिका कुंड नाम से जाना गया। कहा जाता है इसका एक छोर हिमालय में मिलता है। बाढ़ का पानी उतरने के बाद कुंड रेतीली मिट्टी और अन्य जलीय कीच से पटा मिलता है। अक्षय तृतीया पर इसमें मणिकर्णी देवी को विराजमान करा कुंड शुद्ध किया जाता है।
यहां श्रद्धालु स्नान कर भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करते हैं। घाट के शुरू होते ही पत्थर पर भगवान विष्णु की पादुका अंकित है जिसका अलग धार्मिक महत्व है। इस घाट पर ही तारकेश्वर शिवलिंग के अवशेष पाए जाते हैैं। अट्ठारहवीं सदी में बना मंदिर अब धुएं से काला पड़ चुका है। घाट का निर्माण महाराजा इंदौर ने कराया तो यहां स्थित भवनों को पेशवा बाजीराव, महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया था।