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मकर संक्रांति : स्नान-दान संग पतंगों की उड़ान, काशी में दिखेगी भक्काटा की जुबान

धर्म-अध्यात्म के साथ पर्व-उत्सवों का हर रंग एकाकार किए शहर बनारस अंदाज के लिए जाना जाता है। ऐसे में मकर संक्रांति पर पतंगबाजी यहां पर अलग ही आनंद देती है।

By Edited By: Published: Fri, 11 Jan 2019 09:03 AM (IST)Updated: Fri, 11 Jan 2019 11:32 AM (IST)
मकर संक्रांति : स्नान-दान संग पतंगों की उड़ान, काशी में दिखेगी भक्काटा की जुबान
मकर संक्रांति : स्नान-दान संग पतंगों की उड़ान, काशी में दिखेगी भक्काटा की जुबान

वाराणसी, जेएनएन। धर्म-अध्यात्म के साथ पर्व-उत्सवों का हर रंग एकाकार किए शहर बनारस अंदाज के लिए जाना जाता है। बाबा देवाधिदेव महादेव के साथ ही समस्त देवों के प्रति श्रद्धा-आस्था समर्पित करते हुए बनारसी मन तीज-त्योहारों को पूरे मन से सजाता है। यह मकर संक्रांति के खास मौके पर भी नजर आता है। गंगा में पुण्य की डुबकी, सूर्यदेव को अ‌र्घ्य-आराधना और दान के साथ ही लजीज खानपान और पूरा आसमान भाक्काटे व जिया रजा बड़ी नक्ख से गुंजाता है। सात वार नौ त्योहार की लिए पहचानी जाने वाली नगरी काशी जिसके गले में खुद जीवनदायिनी मां गंगा चंद्रहार की तरह विराजमान हों, उस शहर का मान स्वत: ही जल तीर्थ रूप में हो जाता है। इसकी धमनी व शिरा सरीखी वरुणा-अस्सी तो कुंड- सरोवर इसे पूर्ण रूप देते हैं। कार्तिक व माघ पर्यत तो मकर संक्रांति समेत स्नान पर्वो पर उमड़ा रेला इसका अहसास कराता है।

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बाबा के मिजाज का रंग घुला हो जिस धरा में वहां इसका रंग और भी चटख हो जाता है। मकर संक्रांति पर कुछ ऐसा ही होता है जब सुबह से ही स्नान-दान समेत धार्मिक-विधान से उत्तर वाहिनी गंगा के समूचे घाटों पर आस्था व श्रद्धा का सागर लहराता है। इसमें स्थानीयजनों के साथ पूर्वाचल, पश्चिम बिहार समेत देश भर से आए श्रद्धालुओं के भाव से मिनी भारत का अक्श उभर आता है। शिव-शक्ति की नगरी तो फिर क्यों न छलके दानियों की टेंट रूपी गगरी। पुण्य कामना से यह भाव घाट से लेकर देव दरबारों तक हर पेट की चिंता में लंगर के रूप में जुटा नजर आता है। हर एक को भरपेट खिचड़ी, ढूंढा, लइया-पंट्टी खिलाता है तो दान स्वरूप भी यह सब दे जाता है। ..ये छड़ीला, ..वो चांदतारा : दिल को छू जाना वाला यह नजारा जमीन पर तो आसमान पतंगों से पट जाता है। ऐसा दृश्य भगवान भाष्कर की लालिमा छाने के साथ सूर्य की किरणों से स्पर्धा करते ही नजर आता है। परेती या अंटी से मांझा ढीलते बच्चे, बुजुर्ग और जवान समेत उम्र के दायरे टूट जाते हैं। हर आयु वर्ग छत-मैदान में समाता है और आसमान पतंगों से बेतरह पट जाता है।

पतंगों के नाम भी कुछ ऐसे कि बनारसी न हुए तो पतंगों के छड़ीला, छड़ीमारा, दंडामारा, चांदतारा, आंखमारा, गिलासा, जहाजा, टोपीमारा, मत्थामारा, बरेलिया, गिलासा में जहाजा, मछलीमारा, अद्धा, सिगरेटा, फर्रा चादतारा जैसे नाम सुनकर गश खा जाएं। घघ्घा, चऊआ-बित्ता, निचली खींचना, बगली मारना, छतियाना, चख देना, डख देना, हत्थन नोचना, खींचू-खिच्चा करना, ढिल्लू -ढिल्ला, लंगड़ मारना, तीर गुड्डी, कऊआ गुड्डी, पेंचा पेची जैसे शब्दों के बाद डिक्शनरी फाड़ते नजर आएं। कोई जो भी समझे-बूझे, किसी को कुछ सूझे न सूझे लेकिन खिचड़ियाया मन तो खालिस बनारसी अंदाज में 'भाक्काटे' और 'जिया रजा..बड़ी नक्ख से' इस शहर की अल्हड़ मस्ती का अहसास कराता है।

खिचड़ी और ढूंढा-पंट्टी : पर्व-उत्सव की बात हो और इसमें खानपान की पंगत न जमे तो बनारसी मूज कैसे बने। पूरी रात भले ही ढूंढा बनाने और पंट्टी के लिए गुड़ गलाने-जमाने में बीते मगर सुबह से ही किचन एक बार फिर खटर-पटर से गूंज जाता है। पूरी तरह घी में चुपड़ी पंचमेल दाल की खिचड़ी, दही, अचार, पापड़, सलाद के संयोग से छप्पन भोग झांकी की तरह सजी थाल देख जुबान से लेकर पेट तक तर हो जाता है। तिलवा -पंट्टी, गंट्टा-गजक, लाई-ढूंढा समेत खानपान का अंदाज भी इसकी रंगत को बढ़ाता है।

बनारसी मन खुद तो इस रंग में डूबता ही है इससे पहले काशीपुराधिपति देवाधिदेव महादेव समेत अपने आराध्य देवों को भी इन पकवानों-मिष्ठानों का भोग लगाकर श्रद्धा-भक्ति के सागर में गोते लगाता है। विभिन्न प्रांतीय-बहुभाषीय आबादी और मकर संक्रांति मनाने के अंदाज से काशी की जमीन से आसमान तक इंद्रधनुषी रंग पसरा नजर आता है। आप बड़े घुमवइया हो सकते हों और पूरी दुनिया घूम आएं हों लेकिन ऐसा नजारा किसी और शहर में नहीं पाएंगे। आस्था- श्रद्धा और मस्ती के समागम में गोते ही लगाएंगे।


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