अपने आप में अपनी कविता थे केदारनाथ सिंह
डा. काशीनाथ सिंह ------------ वाराणसी : हिंदी ही नहीं भारतीय भाषाओं के गिने-चुने बड़े कविय
डा. काशीनाथ सिंह
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वाराणसी : हिंदी ही नहीं भारतीय भाषाओं के गिने-चुने बड़े कवियों एवं कवि व्यक्तित्वों में से एक रहे हैं कवि केदारनाथ सिंह। वे अपने आप में अपनी कविता थे। उनका पूरा व्यक्तित्व कविता के ही ताने-बाने से बुना हुआ था। उनके साथ होना, चलना-फिरना, बोलना-बतियाना कविता के साथ होना था। बात-बात पर मीर गालिब, फिराक, जिगर की शायरी ही नहीं उनकी जिंदगी के उबड़-खाबड़ और खूबसूरत लम्हे वैसे ही सुना जाते जैसे ब्रिटिश, अमेरिकी, स्पेनिश और फ्रासीसी कवियों के। वे उन विरले कवियों में हैं जिन्होंने अपने बाद की कई पीढि़यों की कविता को नई भाषा और नए मुहावरे दिए हैं।
यह मेरा सौभाग्य है कि पिछले 60-65 सालों से उनके साथ में, अंतरंग रहा हूं। रिश्तेदार होने के पहले से। वे जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र थे तब से। शुरुआती दिनों में मैं उन्हें बबुआ जी बोलता था, और बाद में बाबू साहब। बड़े भाई नामवर सिंह की देखा-देखी। केदार जी कभी नहीं कहा। मैंने उन्हें समय के साथ गिरते, उठते, लड़ते, भिड़ते लेकिन लगातार चलते हुए देखा है। चेहरे पर हमेशा एक लुभावनी मुस्कान उनकी पहचान थी।
दिल्ली उनके मन का शहर नहीं था। मन का शहर था बनारस। यहीं उनके गीतकार और कवि का निर्माण हुआ था। वे अपनी कविता के लिए बार-बार बनारस और बलिया में अपने गाव चकिया लौटते थे, और ताजी हवा और ऊर्जा लेकर जाते थे। पूर्वाचल के जनपद अपनी भोजपुरी गंध के साथ उनकी कविताओं में घुल जाते थे और सोंधेपन से भर देते थे। उनकी कविता का यह आत्म संघर्ष स्वाधीनता के बाद शुरू हुआ था और आज भी चल रहा था कि अचानक स्वर्गीय। उन्हें स्वर्गीय कहना कुछ अजीब सा लग रहा है मुझे। आज जब उनकी घोर आवश्यकता थी हमें, और हिंदी कविता को वे हमें छोड़ गए। उन्हें याद करते हुए मुझे गर्व भी हो रहा है और दुख भी।
(लेखक, साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त ख्यात कथाकार हैं।)