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कहती है काशी खरी-खरी तो बस गांधी ने सुनाई, आप भी जानिये ऐसे कुछ दिलचस्‍प किस्‍से

स्वामी रामानंद से स्वामी विवेकानंद तक, और गालिब से गांधी तक ने मुझसे कई मर्तबा मुलाकात की। किसी ने जन्नत से तुलना की तो किसी ने तीनों लोकों से न्यारी होने की बात कही।

By Ashish MishraEdited By: Published: Wed, 26 Sep 2018 10:43 AM (IST)Updated: Wed, 26 Sep 2018 12:01 PM (IST)
कहती है काशी खरी-खरी तो बस गांधी ने सुनाई, आप भी जानिये ऐसे कुछ दिलचस्‍प किस्‍से
कहती है काशी खरी-खरी तो बस गांधी ने सुनाई, आप भी जानिये ऐसे कुछ दिलचस्‍प किस्‍से

वाराणसी [अजय श्रीवास्तव ]। मैं काशी हूं। अविमुक्त हूं, अविनाशी हूं। देश-दुनिया के लोग मेरे मर्म की थाह लेने आए। कुछ ने जाना, कुछ छूछे हाथ धाए। इतना जरूर है कि जो भी यहां आया, कुछ देर के लिए ठिठका, कुछ पलों के लिए भरमाया। जहां तक उसकी दृष्टि गई उतना ही समझ पाया। किस-किस का नाम लूं, स्वामी रामानंद से स्वामी विवेकानंद तक, और गालिब से गांधी तक ने मुझसे कई मर्तबा मुलाकात की। किसी ने जन्नत से तुलना की तो किसी ने तीनों लोकों से न्यारी होने की बात कही। सच मानिए मुझे अच्छा लगा।

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कभी मैं ठुमकी, कभी इतराई। कभी मुस्कुराई, कभी खिलखिलाई। मगर यकीन मानिए, सचमुच अगर मैंने किसी से ठहर कर बात की तो वह थे मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्होंने कुल 11 बार भेंट की और हर दफा सीधे सपाट लफ्जों में बस खरी-खरी सुनाई। तनिक भी अन्यथा मत लीजिएगा अगर मैं यह कहूं कि लोग मेरे मुरीद हुए और मैं मुरीद हो गई लकुटी वाले गांधी की साफगोई पर।

मुझे याद है महीना फरवरी, 1902 का जब गांधी से मेरी पहली मुलाकात हुई। बाबा विश्वनाथ के दरबार में वे गलियों से लेकर मंदिर तक की गंदगी पर बे-लौस बोल रहे थे। पंडे की ज्यादतियों को अपनी आदत के मुताबिक विवेक की तराजू पर दृढ़ता के साथ तौल रहे थे। पंडाजी एंठने पर आमादा, लेकिन गांधी का भला कहां डिगता इरादा।

दूसरी बार गांधी से मेरी देखा-देखी हुई फरवरी, 1916 में। मौका था काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन का। यहां भी गांधी बे-लाग लपेट, काशी की गंदगी पर वार, मातृभाषा अपनाने की गुहार और कई दिग्गजों की नाराजगी से बे-परवाह राजे-रजवाड़ों की विलासिता पर किया तीखा प्रहार। बुरा मानने वाले बुरा मानते रहे, लेकिन गांधी ने खरी-खरी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। औरों का तो मालूम नहीं, लेकिन वे एक बार फिर से मेरी आंखों के तारे हुए।

तीसरी-चौथी और पांचवीं बार मोहनदास से मेरी मुलाकात क्रमश: नवंबर 1920, फरवरी 1921 और अक्टूबर 1925 में बार-बार हुई। अब वे सिर्फ गांधी नहीं महात्मा थे। इन दौरों के दौरान भी उन्होंने छात्र-शिक्षकों को पुकारा। सियासियों को राष्ट्रवादी बनने को ललकारा और जलियां वाला बाग कांड को कायरता करार देते हुए खुले मंच से धिक्कारा। गांधी बार-बार मेरी सरजमीं पर आए, मुझसे और मेरे आंचल में बसे लोगों से खूब बतियाए।आखिरी बार उनका आना 21 जनवरी 1942 को हुआ और वे काशी हिंदू विवि के रजत जयंती समारोह में शामिल हुए।

महात्‍मा और महामानव
2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में करमचंद गांधी और पुतली बाई के घर जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी को दुनिया ने ‘महात्मा’ और ‘महामानव’ माना। जिन्होंने सत्य-र्अंहसा-सहिष्णुता और समता के बूते दुनिया को मानवीय मूल्यों का संदेश दिया। स्वतंत्रता के प्रकृतिप्रदत्त अधिकार को सभ्यता का मूलआधार बताने वाले राष्ट्रपिता ‘बापू’ की आगामी 149वीं जयंती और 150वें जयंती वर्ष (02 अक्टूबर 2018 से 02 अक्टूबर 2019) पर हम उन चंद प्रत्यक्षदर्शियों को ढूंढ लाए हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी को देखा है। साथ ही उन प्रमुख स्थानों की भी आंखों-देखी प्रस्तुत करेंगे, जहां गांधी के पैर पड़े।

काशी में 11 बार आगमन 

प्रथम आगमन (21-22 फरवरी 1902): बाबा विश्वनाथ का दर्शन और अस्वस्थ एनी बेसेंट का हालचाल लिया।
द्वितीय आगमन (चार फरवरी 1916): ’ पंडित मदन मोहन मालवीय के आमंत्रण पर आगमन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में शामिल हुए। पांच फरवरी नागरी प्रचारिणी सभा के 22वें वार्षिकोत्सव में की
भागीदारी।
तृतीय आगमन (20 फरवरी 1916): टाउनहाल मैदान में सभा को संबोधित किया।
चौथा आगमन (24-27 नवंबर 1920): असहयोग आंदोलन का महत्व समझाने वह काशी आए और छात्रों व शिक्षकों को संबोधित किया।
पांचवां आगमन (09-10 फरवरी 1921): पहले दिन टाउनहाल मैदान में सभाकर विदेशी वस्त्रों के परित्याग की अपील, दूसरे दिन काशी विद्यापीठ की आधारशिला रखी।
छठा आगमन (17 अक्टूबर 1925): काशी विद्यापीठ में चरखा का महत्व समझाया।
सातवां आगमन (7-9 जनवरी 1927): आचार्य कृपलानी द्वारा स्थापित गांधी आश्रम पहुंचे और महामना के बुलावे पर बीएचयू भी गए।
आठवां आगमन (25-26 सितंबर 1927): काशी विद्यापीठ के दीक्षा समारोह में शामिल हुए।
नौवां आगमन (27 जुलाई से 2 अगस्त 1934): दलित बस्ती गए और वहां की दयनीय दशा को जनता के सामने रखा। कबीर मठ ने उन्हें एक थैली तथा 129 रुपये पौने तीन आने भेंट किया।
10वां आगमन (अक्टूबर 1936): अखंड भारत की संकल्पना को साकार करने वाले भारत मंदिर का उद्घाटन किया।
11वां आगमन (21 जनवरी 1942): काशी हिंदू विवि की रजत जयंती में शामिल हुए। 


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