जीव को शिव बना देती है मसाने की होली, वाराणसी में आज मणिकर्णिका घाट पर पारंपरिक भस्मी फाग
फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि की दुपहरिया मणिकर्णिका के महाश्मशान की पारंपरिक भस्म होली इसी परम ज्ञान की सहज सरल परिभाषा है। मृत्यु से परिचित होने के बाद भी उसे जीवन के तरह ही सहजता से स्वीकार करने की उत्कट अभिलाषा है।
वाराणसी [कुमार अजय] । जीवन और मृत्यु को सहज भाव के साथ समभाव के साथ स्वीकार करने वाली काशी में देवस्थान और महाश्मशान का महात्म्य एक समान है। चक्रपुष्करणि, मणिकर्णिका व चरण पादुका जैसा पवित्र तीर्थों के बीच विराज रहे बाबा श्मशान नाथ के चरणों को पखारती गंगा के तट पर स्थित मणिकर्णिका मरघट सिर्फ श्मशान नहीं महाश्मशान है। जहां चिता की लकडिय़ों पर सेंकी गई लिट्टïी निर्विकार भाव से खाई जाती हो। जहां शव जलाने और मलाई उड़ाने का काम साथ-साथ चलता हो। जहां राग-विराग दोनों ही भावों को एकाकार देखकर स्वयं असमंजस में पड़ा काल अपने हाथ मलता हो। वहां तारक मंत्र देकर जीवों को तारने वाले महाकाल भस्म का फाग रचाएं तो आश्चर्य क्या।
देवों के देव महादेव का यही भस्मांगरागाय महेश्वराय स्वरूप बुधवार को राग-रागिनियों से सजी होरी की खनकती टेर के बीच सहज साकार होगा। यहां अपने ईष्ट के साथ भस्म की होली रचाने वाला भक्त भी कल स्वयं (ओंकार) होगा। सामान्यतया मानव जीवन से मुक्ति कोई प्रिय प्रसंग नहीं है। किंतु ईश्वर प्रणित हमारे धर्मग्रंथों से लेकर ऋषि-महर्षियों सभी ने जीवन से मुक्ति या मोक्ष की अभिलाषा व्यक्त की है। महाश्मशान के नाम से भी ख्यात काशी इसी अभिलाषा को जीवन-दर्शन के रूप में अपनाती है। यही वह वजह है जो काशी में मृत्यु को भी मंगलकारक बनाती है। काशी के महाश्मशान में चिता भस्म का फाग रचाने और राग-विराग दोनों को ही दिनचर्या का हिस्सा बनाने का यही यत्न मोक्षदात्रि काशी को अविमुक्त क्षेत्र बनाता है। यही वह वीतरागी फाग जिसमें चिता भस्म को विभूति मानकर मस्तक पर धारण करके जीव भी शिव हो जाता है। इस अनूठे फाग की आध्यात्मिक व्याख्या पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट है कि संसार नश्वर है। जन्म लेने वाला मरेगा ही इस सर्वकालिक सत्य को नकारने का कोई प्रश्न ही नहीं है। फिर भी मरने के बाद क्या होता है। यह सहज जिज्ञासा जीव के मन को मथती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाकाल स्वरूप शिव ने इस जिज्ञासा के शमन के लिए ही काशी को अविमुक्त काशी के रूप में स्थापित जीवन-मरण के चक्र को भंग करने हेतु काशी के महाश्मशान में धुनी रमाई और यहां भस्म पाग का उत्सव रचाकर मृत्यु के गुढ़ रहस्यों को ककहरा जैसा सरल बनाकर जीव को उसकी ही भाषा में यह बात समझाई। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि की दुपहरिया मणिकर्णिका के महाश्मशान की पारंपरिक भस्म होली इसी परम ज्ञान की सहज सरल परिभाषा है। मृत्यु से परिचित होने के बाद भी उसे जीवन के तरह ही सहजता से स्वीकार करने की उत्कट अभिलाषा है।