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सदियों बाद भी रणभेरी... राम फ‍िर चढाएंगे प्रत्‍यंचा और रावण फ‍िर करेगा अट्टहास

क्या कुछ नहीं बदला ढाई सौ साल में, लेकिन नहीं बदली तो रामनगर की रामलीला, बिना लीक से न डिगने का आग्रह ही रामनगर की रामलीला को अन्य आयोजनों से अलग करता है।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Thu, 20 Sep 2018 08:50 PM (IST)Updated: Fri, 21 Sep 2018 02:01 PM (IST)
सदियों बाद भी रणभेरी... राम फ‍िर चढाएंगे प्रत्‍यंचा और रावण फ‍िर करेगा अट्टहास
सदियों बाद भी रणभेरी... राम फ‍िर चढाएंगे प्रत्‍यंचा और रावण फ‍िर करेगा अट्टहास

वाराणसी [प्रमोद यादव] : क्या कुछ नहीं बदला ढाई सौ साल में, लेकिन नहीं बदली तो रामनगर की रामलीला। बदलाव की बयार से दो चार हुए बिना लीक से न डिगने का यह आग्रह ही रामनगर की रामलीला को अन्य मंचीय आयोजनों से अलग करता है। देखने वालों के लिए यह मात्र नाटक न होकर प्रभु से साक्षात्कार का जरिया सरीखा है। लीला ही नहीं देखवइयों का अंदाज भी वही खालिस खांटी होता है जो तन-मन को श्रद्धा-भक्ति के रंगों से सराबोर कर देता है। सदियों बाद भी रामनगर की अनोखी रामलीला में वही रंगत, वही किरदारों की संवाद अदायगी और वही परंपराओं की रामलीला फ‍िर से त्रेतायुग के अमर पात्रों को जीवंत करने जा रहा है।

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तकनीक से अछूती अनोखी परंपरा

तकनीकी विकास के लंबे दौर के बाद भी रामनगर की लीला में आज तक माइक का प्रयोग होते किसी ने न देखा, न ही सुना। बावजूद इसके भक्ति रसपान के लिए टूट पड़े मजमे पर जोरदार संवाद अदायगी भारी पड़ जाती है। दशकों से वैसे ही श्रद्धाभाव टपकाती है। केवल एक 'चुप रहो' का कॉशन और चारो ओर 'पिन ड्राप' सन्नाटा। रही रोशनी की बात तो जैसे प्रभु पात्रों व भक्तों के ह्रïदय से ही किरणें एकाकार हो रही हों। आज भी महताबी की रोशनी में  लीला अपना रूतबा संजोए है। हर प्रसंग महताबी की रोशनी से जगरमगर और दृश्य के मिजाज मुताबिक महताबी के रंग तद्नुसार जुदा-जुदा भाव जगाते हैं। भक्ति भाव उभारने को श्वेत तो युद्ध के दृश्योंं  के लिए चटक लाल प्रकाश रंग पसर जाते हैं। मंच भी अरसे से स्थायी, किसी चबूतरे पर राम की अयोध्या तो कोई रावण की लंका बन गया। सरोवर, कूप व बगीचे भी किष्किंधा, पंचवटी, अशोक वाटिका के रूप में प्रभु की लीला के निरंतर साक्षी होते होते, अब उन्हीं पौराणिक नामों से पहचान पा गए।

प्रभु दर्शन की सबकी कामना

प्रभु की लीला को जी रहे कलाकारों की बात करें तो, भले ही हर साल चेहरे बदल जाते हों लेकिन वे भी पीढिय़ों से खानदानी परंपरा को आज भी श्रद्धाभाव से निभा रहे हैं। तैयारी का अंदाज भी वही पुराना, लीला शुरू होने के दो माह पहले से लेकर खत्म होने तक पात्र भौतिकता से एकदम दूर और चारो ओर केवल भक्ति भाव प्रधान हो जाता है। परिधानों व पकवानों को भी जैसे आधुनिकता की हवा से गुरेज हो। रही देखवइयों की बात तो जैसी प्रभु की लीला वैसी उनकीभक्त मंडली। एक माह चलने वाली विश्वप्रसिद्ध रामलीला के दौरान दुनियावी परेशानियों से पल्ला झाड़ इनमें प्रभु दर्शन की सहज-सरल आतुरता का साक्षात्कार किया जा सकता है।

आस्‍था का उमड़ता सैलाब

विभिन्न प्रसंगों के दौरान नयनों से बहती अश्रुधारा व जयजयकार लीला की सजीवता का बखान करती है। बचपन से लीला नेमी ख्यात न्यूरोलाजिस्ट व बीएचयू अस्पताल के एमएस डा. वीएन मिश्र रामनगर की रामलीला का जिक्र आते ही विह्वल हो जाते हैं। बताते हैं-रामजी की लीला कोई नाट्य नहीं संपूर्ण अनुष्ठान है, जिसमें डूब जाने के लिए देश-विदेश से लोग खींचे चले आते हैं। संत-महंत हों या विज्ञानी एक भाव नजर आते हैं। उनके मासपर्यंत रामजी के चरणों में बिताने के लिए महीनों पहले से होटलों में कमरे बुक हो जाते हैं।


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