जागरण फिल्म फेस्टिवल में बोले संजय मिश्रा, हिंदी फिल्में बेहतर दौर में और मैं पूरी तरह फिल्मी
बिंदास अंदाज और दिखते ही किसी के मन में जाग जाए यह अहसास कि इन्हें देखा है कहीं आसपास। कुछ ऐसा ही है खालिस आम आदमी की छवि रखने वाले फिल्म अभिनेता संजय मिश्रा के साथ।
वाराणसी, जेएनएन। मस्त-मलंग छवि, बिंदास अंदाज और दिखते ही किसी के मन में जाग जाए यह अहसास कि इन्हें देखा है कहीं आसपास। कुछ ऐसा ही है खालिस आम आदमी की छवि रखने वाले फिल्म अभिनेता संजय मिश्रा के साथ। शुक्रवार को जागरण फिल्म फेस्टिवल में उनका यही रंग लोगों को खूब भाया। जेएचवी मॉल की ऑडी में प्रवेश करते ही उन्होंने हाथ उठाया और दर्शक दीर्घा से गूंज उठे हर हर महादेव के उद्घोष ने उत्साह और उल्लास का पिटारा खोल दिया।
उन्होंने जुबान खोली तो इस शहर के प्रति आभार के शब्द निकले और चुटीले अंदाज में मुरीद करते चल पड़े भाव प्रेषण के सिलसिले। दैनिक जागरण से मुखातिब हुए तो एनएसडी के पूर्व छात्र ने मानों जिंदगी की किताब खोल कर रख दी। बेबाकी से कहा रंगकर्म से मैंने एक्टिंग सीखी, टीवी से कॅरियर शुरू किया और अभी पूरी तरह फिल्मी हूं। उन्होंने वर्तमान दौर, फिल्मों का बदलता अंदाज और राजनीति पर बेबाक टिप्पणी की।
रंगकर्म-फिल्म दोनों दो अलग विधाएं : फिल्म और रंगकर्म दोनों अलग विधाएं हैं। इसमें लेंस हैं तो उसमें दर्शकों की आंखें ही लेंस हैं। फिल्म में जिस तरह के चरित्र निभाने को मिल रहे वैसे नाटक में सोचा भी नहीं था। अलग-अलग रोल मिल रहे हैं और संतुष्टि भी दे रहे हैं। 'कड़वी हवा', 'टर्टल' के बाद बनारस में 'बहुत हुआ सम्मान' शूट करने जा रहा। मराठी कैरेक्टर वाली '108 मर्यादित' में भी मजा आएगा।
हिंदी सिनेमा का बेस्ट फेज : संजय मिश्रा का मानना है कि हिंदी सिनेमा अपने बेस्ट फेज में है। एक से एक फिल्में बन रही हैं। पेड़ों के पीछे नाचने- गाने और मंडप में जोड़ी बनाने का दौर खत्म हो गया है। हीरो-हीरोइन से बढ़कर कैरेक्टर पर ध्यान दिया जा रहा है। रीयल किरदार, रीयल कलाकार और सरोकार संग फिल्में बन रही हैं, देखी भी जा रही हैं।
वेब सीरीज का भविष्य : वेब सीरीज फिल्मों का भविष्य है। हमने थिएटर में जाकर फिल्में देखना छोड़ दिया। अब सेलफोन पर फिल्में बन रहीं और देखी जा रही हैं। एक ही बंदा एक्टर और टेक्नीशियन भी है। इसे पाम थिएटर संस्कृति बढ़ावा दे रही है।
पाम थिएटर के कारण रंगकर्म से दूरी : हिंदी नाटकों से लोग पहले ही दूर थे। हां, अंग्रेजी से नजदीकी जरूर थी। नाटक -नौटंकी का कल्चर भी खत्म हो गया। वास्तव में लोग अपने आप से दूर होते जा रहे हैं। आखिर पाम विधा से अपने आप को कैसे बचाएंगे। अंदर-बाहर सभी अपने आप में व्यस्त हैं। थिएटर कल्चर खत्म होने के पीछे इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी स्तर पर उसे मदद नहीं मिली।
रंगकर्मियों का हो रहा भला : यूपी-बिहार हो या कोई अन्य जगह, फिल्में रंगकर्म को समृद्ध कर रही हैं। इससे रंगकर्मियों को काबिलियत दिखाने का मौका मिल रहा। मैं खुद तो पंकज त्रिपाठी, नवाजुद्दीन समेत कई नाम गवाह हैं।
समग्रता से बनता है सिनेमा : कलाकारों, शिक्षाविदों व राजनेताओं की खान यूपी-बिहार का फिल्मों में विकृत चेहरे पर संजय मिश्रा ने कहा कि कोई एक सिनेमा नहीं बनाता, यह समग्रता से आकार पाता है। रही बात इमेज की तो यह सिर्फ सिनेमा नहीं सभी मिलकर बनाते हैं।
अंदर के कलाकार से मिली प्रेरणा : संजय मिश्रा को फिल्मों में आने के लिए उनके अंदर के कलाकार ने प्रेरित किया। कहा, इसमें न आते तो कविता करते या तबला-सितार बजाते लेकिन अपने भावों को प्रेषित करने के लिए एक्टिंग को अपना लिया।
बना रहे अपनापा : देखो गुरु, आप बनारस के हो या बद्रीनाथ के, अपनत्व खो दिया तो कहीं के नहीं होगे। अपने आप को हर जगह जगा कर रखना होगा। वास्तव में कौआ हंस की चाल चला तो गड़बड़ा जाएगा।
उद्देश्यों में सफल हो रहा सिनेमा : सिनेमा हमेशा अपने उद्देश्यों में सफल रहा है। जागरण फिल्म फेस्विल जैसे आयोजन इसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। रिलीज करने वाले मिलें, न मिलें अब लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
टीवी का दौर खत्म : टीवी से कॅरियर शुरू करने वाले संजय मिश्रा को टीवी अब उस बीवी की तरह लगती है जो बोलती जाती है लेकिन कोई सुनता नहीं। कहा बीते दौर की बात हो गई, अब उधर, कहां जाना।
धरा रह गया कैमरे का शौक : फिल्म अभिनेता संजय मिश्रा की अंगुलियां सितार के तारों की सैर करने को भी कुलबुलाती हैं। उन्हें खाना बनाना, घूमना और फोटोग्राफी का भी शौक है, कहा अब तो कहीं कैमरा चमकाने जाओ तो दर्जन भर कैमरे खुद पर चमक उठते हैं। कभी-कभी गा लेता हूं, संगीत हमेशा साथ रहता है।
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