वाराणसी में पर्व-उत्सवों का साल भर लगता हैं रेला, इस शहर में सजता पांच-पांच विशेष लक्खा मेला
बनारसी मन-मिजाज से जितना अक्खड़-फक्कड़ उतना ही घुमक्कड़ भी है। हर मौसम-मौके को खूबसूरत बहाने की शक्ल देकर घुमक्कड़ी के अनुकूल बनाना दुनियावी दिक्कतों-दुश्वारियों को खूंटी पर टांग उन्मुक्त भ्रमण को निकल जाना बनारसियों का सहज स्वभाव है।
वाराणसी, जागरण संवाददाता। बनारसी मन-मिजाज से जितना अक्खड़-फक्कड़, उतना ही घुमक्कड़ भी है। हर मौसम-मौके को खूबसूरत बहाने की शक्ल देकर घुमक्कड़ी के अनुकूल बनाना, दुनियावी दिक्कतों-दुश्वारियों को खूंटी पर टांग उन्मुक्त भ्रमण को निकल जाना बनारसियों का सहज स्वभाव है। मन सावनी बहारों में रमने का हुआ तो लिट्टी-चोखे के रसास्वादन के बहाने शहर की रज-गज से कोसों दूर किसी बागीचे में अहरा दगा दिया।
मिजाज बना कार्तिकी सिहरन को नजदीक से महसूसने का तो अंवरा तले सहभोज की पंगत जमा ली। रतभर्रा टहलान धुन चढ़ी तो टोले-टोले नक्कटैया मेला घूमने का प्लान बना लिया या पूरे कुनबे को शहर के इस छोर से उस ओर तक दुर्गा पूजा पंडालों में नाइट मार्च करा दिया। शहर के चार पारंपरिक लक्खा मेलों में रथयात्रा मेला पहले पायदान पर प्रतिष्ठित है। इससे ही उत्सवी सीजन का श्रीगणेश होता है और समापन हाल के दशक में इस शृंखला में जुड़े काशी के अनूठे जल उत्सव देवदीपावली से होता है। पेश है काशी के लक्खा मेलों पर प्रमोद यादव की रिपोर्ट।
मनमौजी आयोजन शृंखला की मजबूत कड़ी रथयात्रा
काशी में बहुत कुछ बदल गया मगर भक्ति के साथ मटरगश्ती की युगलबंदी का अवसर उपलब्ध कराने वाले रथयात्रा उत्सव की चमक वैसी ही चटख है। शिव की नगरी काशी में शैव-वैष्णव एका के सबसे बड़े उत्सव के रूप में प्रतिष्ठित रथयात्रा मेले के कुछ पारंपरिक दृश्य भले धुंधले पड़ गए हों, लेकिन अलबेला मेला आज भी नगर के उन्मुक्त उत्सवों की पहली लड़ी है।
माल कल्चर के दौर में भी इसमें सभी वर्गों की समान रूप से भागीदारी इसकी रौनकों को पुरनूर करती है। समान भाव से सभी लोग स्वामी जगन्नाथ के चरणों में श्रद्धा निवेदित करने के साथ रस्मी तौर पर मेले की रौनकों में हिस्सा बंटाते हैं।
जहां रचें लीला लीलाधर, उहैं जमुन की धार
भगवान कृष्ण की छवि में भी अपने आराध्य प्रभु श्रीराम का दर्शन पाने वाले संत-शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने 500 वर्ष पूर्व काशी के प्रसिद्ध भद्रवनी घाट (अब तुलसीघाट) की सीढि़यों पर 'श्रीरामचरित मानस' के लेखन को विश्राम दिया तो समस्त शिवपुरी कृत-कृत्य हुई थी। यही काशी नगरी तब और धन्य हुई तुलसी बाबा श्रीराम की इन्हीं पैड़ियों पर रामलीला रचाने के कुछ ही दिनों बाद मुरली वाले की लीला रचाकर काशीपुराधिपति बाबा को प्रिय दोनों आराध्यों को एकाकार कर तुलसीघाट पर ही गंगा-यमुना का संगम करा दिया।
कार्तिक कृष्ण द्वादशी से मार्गशीर्ष प्रतिपदा तक चलने वाली 20 प्रसंगों की यह लीला अब काशी की सांस्कृतिक धरोहर है। काशी की इस एकमेव कृष्णलीला में तुलसीघाट की सीढि़यों पर गोकुल-वृंदावन उतर आते हैं। श्रीकृष्ण-चरित के 20 प्रसंगों वाली संपूर्ण लीला नेमीजनों के बीच देव-दर्शन पुण्य के तुल्य मान्य है फिर भी कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को गंगधार पर आयोजित नागनथैया लीला काशी के लक्खा मेलों की सूची का सिरमौर है। इस पांच मिनट की लीला के चरम क्षण के दर्शन को घंटों पहले से गंगा की लहरों पर एकटक ठहरी होती हैं लाखों जोड़ी आंखें।
अभिव्यक्ति का धारदार हथियार बनी चेतगंज की नक्कटैया
वर्ष 1857 की क्रांति असफल होने के बाद अंग्रेजों का जुल्म बढ़ता जा रहा था। ऐसे दौर में अभिव्यक्ति का धारदार हथियार बनी चेतगंज की नक्कटैया। ठीक तीन दशक बाद 1888 में बाबा फतेहराम ने राष्ट्र धर्म से जुड़े पैगामी उत्सव नक्कटैया के जरिए अभिव्यक्ति को धार दी। तौर तरीका ऐसा कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उद्घाटन भी अंग्रेजी अफसर से ही कराते।
रामलीला के प्रसंगों के सहारे युवाओं के जत्थे आजादी के तराने गाते। छंदों-चौपाइयों में सारी बातें कह जाते। भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में इसमें बौर लगे। आंदोलन की अगुवाई करने वाले शीर्ष नेता या तो कारागार में थे या फिर भूमिगत हो लड़ाई को पैनापन देने की कोशिश में जुटे थे। ऐसे में अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए लाखों की भीड़ वाला उत्सव, चेतगंज नक्कटैया को जरिया बनाया।
डा. संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश, खेदनलाल जायसवाल, विश्वनाथ जायसवाल आदि ने मिल बैठ कर रणनीति बनाई। परंपरागत लाग-स्वांग व विमानों (झांकियां) के साथ आजादी का पैगाम देने वाली झांकियों को शामिल किया गया। तिरंगा-चरखा, जेल-पुलिस अत्याचार, आंदोलन के नेताओं के स्वरूप सहेजे झांकियों से सजा नक्कटैया का जुलूस जब सड़क पर निकला तो तहलका मच गया। जोशीले नारों से स्वागत हुआ। यह प्रयास प्रशासन की नजर में आने से बचा न रहा। रोक-टोक की कोशिशें अपार जनसमर्थन से असफल रहीं। आजादी के बाद नक्कटैया ने समाज सुधार आंदोलन को अकवार में लिया। आज भी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की पूरी रात घुमान-टहलान के साथ पैगामी उत्सव जारी है।
आंखों से जलधारा, हर हर महादेव का नारा
परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले शहर बनारस में प्रभु श्रीराम की लीला श्रद्धा-भक्ति का वह टीला है जो सीधे त्रेता युग में ले जाता है। विश्वास न हो तो आश्विन शुक्ल एकादशी पर काशी आइए। नाटीइमली पूछ भर लीजिए, मैदागिन छोर से या लहुराबीर की ओर से श्रद्धा के अथाह सागर में गोता लगाने का अहसास पाएंगे। भरत मिलाप के नाम से ही ख्यात मैदान तक पहुंचने में पसीने छूट जाएंगे।
वास्तव में वनवास खत्म करने के बाद की लीला चित्रकूट-अयोध्या की सीमा का मान पाए इस मैदान में ही होती है। महज दो मिनट की झांकी दर्शन के लिए दोपहर से ही पूरी देश-विदेश से धर्मानुरागियों और जिज्ञासुओं की अपार भीड़ उमड़ आती है। शाम 4.40 बजे अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें जब मंच के सामने दंडवत होती हैं तो श्रीरामचरित मानस की चौपाई 'परे भूमि नहीं उठत उठाए, बर करि कृपा सिंधु उर लाए की गूंज के बीच चारों भाइयों के मिलन की झांकी मूर्त रूप लेती है। दो मिनट की लीला में आंखों से अश्रुधारा और जुबान पर जय श्रीराम व हर हर महादेव का नारा होता है।
देव दीपावलीः आस्था-संकल्पों का उजाला
काशी में दो दशक पहले तक चार ही लाखा, लखिया या लक्खा (एक लाख लोगों की भागीदारी) मेले थे। नाटीइमली का भरत मिलाप, चेतगंज की नक्कटैया, तुलसीघाट की नागनथैया और रथयात्रा मेला, किंतु हाल के वर्षों में इसी श्रेणी में देवदीपावली ने भी अपनी जगह बना ली है। अब यह काशी का पांचवां लक्खा मेला है। कह सकते हैं पिछले कुछ वर्षों से इसमें बाकी चार लक्खा मेलों की तुलना में अधिक लोग जुट रहे।
काशी के अनूठे जल उत्सव देवदीपावली की विशिष्टता यह कि इसके साथ अब राष्ट्रीयता का उदात्त संदेश जुड़ा है। पुरखों-शहीदों के प्रति श्रद्धा-अर्पण का व्यापक भाव। इस अवसर पर आकाशदीप यहां सेना के उच्चाधिकारी के हाथों प्रज्ज्वलित और गगनार्पित होता है। घाट पर सेना के जवानों की सशस्त्र टुकड़ी गरिमापूर्ण अनुशासन-व्यवहारों के साथ उपस्थिति दर्ज कराके आयोजन में चार चांद लगाती है। इसके साथ काशी के गले में चंद्रहार सी लिपटी उत्तरवाहिनी गंगा की घाट शृंखला पर क्षण भर में अनगिन दीये प्रकाश-पुलक हो जाग उठते हैं।
यह दृश्य अलौकिक अनुभूति से भर देने वाला होता है। अब इसे देखने आने वालों में दुनिया के कोने-कोने के लोग शामिल हैं जिनके नाम से बनारस के तमाम होटल आदि महीनों पहले से बुक होने लगते हैं। काशी में देवदीपावली के आरंभ संग धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होलकर का नाम जुड़ा है। कहा जाता है उनके बनाए हजारा दीपस्तंभ (एक हजार एक दीपों का स्तम्भ) से पंचगंगाघाट पर देवदीपावली उत्सव का प्रारंभ हुआ। इसे व्यापक बनाने में काशीनरेश महाराज विभूतिनारायण सिंह ने ऐतिहासिक योगदान किया। बाद में तमाम श्रद्धालु लोग आगे आते और महत्वपूर्ण भूमिका निभाते चले गए।