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ई हौ रजा बनारस : पाकिस्तानी बहुरिया को अब कराची से ज्यादा भाती है काशी

वाराणसी में बाबुल के 'देस' कराची की गलियों की तस्वीरों के अक्स बनारसी बहू को याद हैं मगर उससे कहीं पसंद है काशी का अपनापन।

By JagranEdited By: Published: Tue, 22 May 2018 08:30 AM (IST)Updated: Tue, 22 May 2018 02:01 PM (IST)
ई हौ रजा बनारस : पाकिस्तानी बहुरिया को अब कराची से ज्यादा भाती है काशी
ई हौ रजा बनारस : पाकिस्तानी बहुरिया को अब कराची से ज्यादा भाती है काशी

कुमार अजय, वाराणसी : बाबुल के 'देस' कराची की गलियों की तस्वीरों के अक्स धुंधले होते-होते कब किस मोड़ पर बनारस की गलियों में गुम हो गए, पता ही नहीं चला। कराची के हलवे के स्वाद पर गाजर के बनारसी हलवे का जायका कब तारी हुआ, जज्बातों के तराजू पर 'उधर' के मुकाबले 'इधर' का पलड़ा कब भारी हुआ यह भी याद नहीं।

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शायराना अंदाज वाला यह खूबसूरत बयान है शहर बनारस के नामचीन हुसैन घराने (दालमंडी, पुरानी अदालत) की बहू बेगम तजीन जेहरा के जो कोई 24 साल पहले कुनबे के चश्मो-चिराग आशी भाई की ब्याहता बन कर पाकिस्तान के कराची शहर से यहां आई और आज पुख्ता यकीन के साथ कह पाने की स्थिति में हैं कि अब तो 'पिया का घर' यानी बनारस ही प्यारा लगे।

इफ्तारी दस्तरखान पर हुई एक निहायत ही गैररस्मी मुलाकात में जेहरा ने अपना दिल खोलकर रख दिया। उनका मानना है कि यकीनन यह गंगा के पानी की तासीर का कमाल है जिसने बनारस और बनारसीपन को दिल की धड़कनों से बावस्ता कर दिया, एक अजनबी सी पहचान को रगों के बरस्ता कर दिया। कहती हैं जेहरा 'जितनी उम्र मायके में गुजारी उससे ज्यादा उम्र ससुराल में कट गई। अब क्या ईद और क्या बकरीद, सब कुछ यहीं पर भाता है। लगता है मानो इन गलियों से बरसों का रिश्ता है, गंगा से सदियों का नाता है। दावे के साथ कह सकती हूं कि आज की तारीख में बदलते वक्त की आरसी हूं, मन से पूरी ¨हदुस्तानी और मिजाज से खांटी बनारसी हूं।'

बयां करती हैं जेहरा 'कराची बनारस के मुकाबले काफी बड़ा शहर है, जाहिर है वहां बेपनाह रौनकें हैं, मगर चमक-दमक की ओर बेतहाशा भागती दुनिया के बीच अपने शहर बनारस की जिंदगी में जो पुरसुकून ठहराव है वह कहीं और मयस्सर नहीं।'

माहे रमजान की बात चलने पर बताती हैं जेहरा कि वहां (कराची में) इन दिनों इबादत के दौर के साथ ही सुबह-शाम जश्न का माहौल होता है, मगर जहां तक तसल्ली का सवाल है घर से लेकर मुहल्ले तक का एक-दूसरे के नजदीक से नजदीकतर सिमट कर रोजा रखने और रोजा खोलने का जो सुख है वह बनारस को छोड़कर भला और कहां नसीब?

जेहरा का कहना है कि वह इस शहर की सादगी और फक्कड़ मिजाजी पर कुर्बान हो गई, फिर चाहे यहां की बोल-चाल हो या जिंदगी को जीने का अनोखा अंदाज, जो जितने में है खुश है, अपनी मर्जी का बादशाह है, दुनिया की आपाधापी से गाफिल मस्तियों का हमराह है।

माइक्रोबायोलॉजी की ग्रेजुएट बेगम जेहरा दीन-ईमान को लेकर बेहद जज्बाती हैं। उनका मानना है कि बात ¨हदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, मजहब यही सिखाता है कि एखलाक अच्छा होना चाहिए, एक-दूसरे की बंदगी को अदब और एहतराम देने का जज्बा होना चाहिए। यह सीख सिर्फ ¨हदुस्तान-पाकिस्तान के लिए नहीं, पूरी इंसानियत के लिए है। य़कजहती को ज्यादा पुख्ता जमीन देती है छोटी-छोटी बातें

जेहरा का मानना है कि रमजान का मुबारक महीना सब्र की मजबूती और ईमान की पुख्तगी के इम्तिहान का महीना है। इसे तंग दायरों से अलग हर किसी को मनाना और आजमाना चाहिए। जिक्र करती हैं कि किस तरह उनकी बेटी अनमोल और बेटे दानियाल के दोस्त और उनके अध्यापक रोजे के दिनों में उनका कितना खास ख्याल रखते हैं। उन्हें पूरी 'अटेंशन' देते हैं। तजीन का मानना है कि भारी भरकम भाषणों के मुकाबले ये छोटी-छोटी बातें मिल्लत और य़कजहती को ज्यादा पुख्ता जमीन देती हैं।


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