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ई हौ रजा बनारस : काशी के मुन्नू का काढ़ा, दूर भगा देता है लोगों का जाड़ा

बनारस में मुन्नू सरदार का करिश्माई काढ़ा गले से नीचे उतरते ही ठंड को उसकी औकात बता देगा, भरोसे की इस मुट्ठी भर आंच से ही उनकी कंपकंपी थमती चली जाती है।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Thu, 13 Dec 2018 09:56 PM (IST)Updated: Fri, 14 Dec 2018 12:55 PM (IST)
ई हौ रजा बनारस : काशी के मुन्नू का काढ़ा, दूर भगा देता है लोगों का जाड़ा
ई हौ रजा बनारस : काशी के मुन्नू का काढ़ा, दूर भगा देता है लोगों का जाड़ा

वाराणसी [कुमार अजय]। बस...अब और नहीं...। हाड़ को भेदती शीतलहर के थपेड़ों से सीने की पसलियां कड़कड़ाने लगी हैं। ठंड की तीखी मार से रिक्शे के हैंडिल पर कसी हथेलियों की पकड़ थरथराने लगी है, प्लास्टिक की चप्पल में अटे पांव के पंजे अब सुन्न हैं, लाचार हैं। अकड़ती पीठ और जकड़ती कमर जवाब देने को तैयार है। ऐसे में तेलियाबाग की उत्तरी पटरी पर जल रहे बल्ब की पीली रोशनी बर्फीली हवाओं से जमे जा रहे रिक्शा चालक मुनीर खां को हीटर का बाप नजर आती है। मुन्नू सरदार का करिश्माई काढ़ा गले से नीचे उतरते ही ठंड को उसकी औकात बता देगा, भरोसे की इस मुट्ठी भर आंच से ही उनकी कंपकंपी थमती चली जाती है। 

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काशी की असल पहचान : अगले कुछ पलों में सब कुछ वैसा ही होता है जैसी मुनीर ने उम्मीद लगाई थी। जिस राहत की कल्पना मात्र से उसकी जाम रगों में गर्माहट उतर आई थी। ठीहे पर रिक्शा खड़ा करते ही मुन्नू सरदार बड़े ही जोशीले अंदाज में मुनीर भाई को आवाज लगाते हैं 'आवा यार मुनीर पहिले अलाव तापा। काढ़ा तइयार हौ, कम से कम तीन-चार पुरवा खींचा आज जाड़ा अपरंपार हौ।' ठीहे के अलाव के इर्द-गिर्द बैठे मजूरों, कामगारों, रिक्शे-ट्राली वालों की जमात मुनीर के लिए ईंटा भर जगह बनाती है, बिना विलंब किए मुन्नू के काढ़े की छलकती प्याली मुनीर की सुन्न पड़ी हथेलियों के बीच सिमट आती है। दो-तीन कुल्हड़ों के बाद मुनीर भाई की थरथरी उडऩ छू, मिजाज टनाटन। नई ताजगी के साथ लहुराबीर के लिए पैडल मारने लगते हैं दनादन। 

सर्द रातों में बांटते हैं राहत : आखिर कौन है मुन्नू सरदार और क्या है उनके काढ़े का कमाल, यह जानने के लिए तेलियाबाग तक करनी होगी कदमताल। मुर्री वाली चारखाना की लुंगी और कमीज में डटे ठीहे तक पहुंचे हर अमीर-गरीब को बगैर भेद काढ़ा पिलाते बड़ी ही मस्ती में सबसे हंसते-बतियाते इस मिजाजी शख्स का नाम है मुन्नू सरदार। जनाब चाय की दुकान चलाते हैं, जाड़े की ठिठुरती सर्द रातों में जगराते को मजबूर मेहनतकश मजदूरों व मजलूमों के लिए मसीहा बन जाते हैं। हाड़ कंपाती सर्दी में सड़क नाप रहा हर अदना-आला आधी रात से भोर तक मुन्नू के राहती ठीहे का मेहमान है। अदरक, तुलसी, अजवाइन, मुलहठी, सोंठ, काली मिर्च और सेंधा नमक जैसी पंद्रह औषधियों वाला सरदार का मीठा नमकीन, निश्शुल्क काढ़ा ठंड से अकड़ते सैकड़ों फुटपाथी वाशिंदों की राहत का सामान है।

भर रहे आशीर्वाद का भंडार : बताते हैं मुन्नू 'बीसन साल से शीतलहरी की रात में खटनी करे वाले संगियन के मुफ्त के सेवा करत हई, कुशल क्षेम सब राम हवाले, हम त आशीर्वाद से भंडार भरत हई। बात कउनो राज क नाहीं बनारसी मन-मिजाज क हौ, एह बदै कउनो परवाह नाहीं, दऊ दू जून क रोटी अउर छत क छाया देहले हउअन त मुन्नू बनारसी क अउर का चाही।' गंगा जी को टूटकर चाहने वाले मुन्नू भइया जब भी मौका मिलता है तो भाई राधेश्याम के साथ गंगा में डुबकी जरूर मार आते हैं, उनका ठीहा ऐसे ही मोहब्बत बांटता रहे विश्वनाथ बाबा और गंगा माई से बस इतनी ही खैर मनाते हैं।

सोच से ही नहीं कर्म से भी समाजवादी : डा. लोहिया के विचारों से प्रेरित मुन्नू सरदार सिर्फ सोच से ही नहीं कर्म से भी शुद्ध समाजवादी हैं। ठीहे की बहसों में खरी-खरी बोलते हैं, ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं पर सही-गलत को बूझने से पहले विवेक की कसौटी पर जरूर तोलते हैं।


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