ई हौ रजा बनारस - सुबह - ए -बनारस में रूहानी रंग भरती हैं
कुमार अजय --------- वाराणसी : ढोल-मजीरे की ताल पर शिवनाम की प्रभाती गाती जगतगंज के शिवभ
कुमार अजय
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वाराणसी : ढोल-मजीरे की ताल पर शिवनाम की प्रभाती गाती जगतगंज के शिवभक्तों की टोली अलसुबह जब सड़क पर आती है तो क्या मुकामी और क्या सैलानी सबके कदम दो पल के लिए ठिठक जाते हैं। जीवंत प्रस्तुति की आभा ऐसी कि श्रद्धा से लोगों के हाथ प्रणाम की मुद्रा में स्वत: जुड़ जाते हैं। इधर काशीपुरा से गोदौलिया की ओर बढ़ती प्रभातफेरी ऐन चौक पर विदेशी पर्यटकों के लिए अजूबा बनी हुई है। वे ये जान कर हैरान हैं कि इस शहर के लिए ये रोजाना की बात है और इसके प्रणेता स्वयं 'लार्ड विश्वनाथ' हैं।
मंत्रों में सबसे अमोघ शिवपंचाक्षरी मंत्र से तन-मन को साधती, सुबह-ए-बनारस को उजले रूहानी रंगों में बांधती ये सुरीली प्रभात फेरियां जब अलग-अलग दिशाओं से दशाश्वमेध घाट की ओर बढ़ती हैं तो शहर बनारस की जीवंत सुबह हर दिन नई ताजगी से भर जाती है। 'ओम नम: शिवाय' की रटन दिव्य ऊर्जा बनकर शिवनगरी के कण-कण में समा जाती है। अब तो यह अनुष्ठान नगर के लोगों की दिनचर्या का अंग है, शहर बनारस का एक और अनोखा रंग है। लोग इन प्रभातियों की आमद से अपनी घड़ियां मिलाते हैं, इनके माध्यम से अपना पहला प्रणाम 'बाबा दरबार' तक पठाते हैं। देव दीपावली और गंगा आरती के बाद यह तीसरा विलग प्रयास है जो अपनी निरंतरता के बूते परंपरा का रूप लेता नजर आता है। काशीवासियों के लिए एक नैत्यिक उत्सव और देश-विदेश से आए पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए एक आह्लादकारी कौतूहल बन कर उन्हें रिझाता है।
जगतगंज की शिवनाम रटन टोली के मुखिया और इस अनूठे आयोजन के कल्पनाकार डा. मृदुल मिश्र बताते हैं कि वर्ष 2001-2002 में काशी की सुबह प्रतिदिन शिवनाम की अलख जगाने, हर भोर को अध्यात्म के धवल रंग से सजाने, साथ ही प्रात: भ्रमण की आदत बनाने के लिए चार मित्रों के साथ जगतगंज से पहली प्रभातफेरी निकाली। वह दिन और आज का दिन परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल शिवनाम रटन प्रभात फेरी का क्रम एक दिन भी नहीं टूटा।
जैसे कोई माली पौधे की नई शाखा फूटने पर मगन हो उठता है, कुछ वैसे ही अंदाज में अगराते-इतराते कहते हैं डा. मिश्र 'आज चेतगंज, काशीपुरा, लक्सा व जैतपुरा से उत्साही भक्तों की टोलियां निकल रही हैं। त्रिशूल-डमरू का निशान साथ में लेकर निकलने वाली प्रभात फेरियों की नई साज सज्जा और उनके चटख रंग बताते हैं कि इस अनुष्ठान को लेकर लोगों में कितनी उमंग है।' ये जानकारी देते हैं कि हर प्रभात फेरी सबसे पहले डेढ़सी पुल स्थित सिंह द्वार तक आती है और उत्तराभिमुख होकर 'बाबा' को कीर्तन सुनाती हैं। यात्रा को विराम दिया जाता है अहिल्याबाई घाट पर गंगा स्नान के साथ।
आंखों में बस एक सपना है
काशी की परंपराओं में शामिल हो चुकी प्रभातफेरियों के कल्पनाकार डा. मृदुल मिश्र की आंखों में बस एक सपना है नगर की हर सड़क से गुजरने वाली 21 प्रभातियों के गठन का। उन्हें उम्मीद है कि साल के अंत तक कई और प्रभातियां सामने आएंगी और इस आनुष्ठानिक श्रृंखला का हिस्सा बन जाएंगी। समूची काशी को 'ओम नम: शिवाय' के मंत्र से गुंजाएंगी। आराधना भी, योग साधना भी
कहते हैं डा. मृदुल- शिवाराधना के साथ पंचाक्षरी मंत्र स्वयं में एक संपुट योग साधना भी है। इसमें मंत्र के हर अक्षर के उच्चारण से नाभि से मस्तिष्क तक की तंत्रिकाएं स्पंदित होती हैं। इस लिहाज से देखें तो ये प्रभातफेरियां मन में सात्विक भाव जगाने वाला तंत्र भी हैं, तन को साधने का प्रभावी यंत्र भी हैं।