ई हौ रजा बनारस : काढ़ा की चुस्की दलपहिता का चटखारा, संग में गीता के कर्मयोग का गूढ़-गंभीर पहाड़ा
काढ़ा की चुस्की दलपहिंता हरे साग संग पकाई गई दाल के चटखारे व श्रीमद्भगवत गीता के कर्मयोग के गूढ़-गंभीर पहाड़े के बीच कोई सपाट रिश्ता बनता नहीं दीख पड़ता।
वाराणसी [कुमार अजय]। अगर कोई सीधी रेखा खींचे तो आयुर्वेदिक काढ़ा की चुस्की, दलपहिंता 'हरे साग संग पकाई गई दाल' के चटखारे व श्रीमद्भगवत गीता के कर्मयोग के गूढ़-गंभीर पहाड़े के बीच कोई सपाट रिश्ता बनता नहीं दीख पड़ता। अलबत्ता देखने की ही उत्कंठा हो इस त्रिकोण के संयोग को तो आपको बनारस के अस्सी क्षेत्र की डुमराव बाग कालोनी तक पहुंच बनानी होगी। कल्पना की धनी युवा परास्नातक साक्षी की निराली सोच से निकलकर जमीन पर उतरे स्पैरो कैफे के अनूठेपन से आत्मीय पहचान बनानी होगी तो आइये शहर बनारस में आने वाले देश दुनिया के पर्यटकों को सज्जा शैली से लगायत खांटी देसी रसोई तक के अनोखे अंदाज से लुभा रहे व पोदीने की लजीज चटनी के साथ बाजरे के रोटी की पुरलुत्फ करा रहे स्पैरो कैफे की ओर चलते हैं।
यहां भारत के ठेठ देसी अंदाज से एकरस होने को आतुर विदेशी मेहमान न सिर्फ आलू-बैगन की कलौंजी के बघार की खुशबुओं के बीच बैठे ठाले अपने अनुभवों को बांट रहे हैं। साथ ही कैफे के परिसर में ही पल्लवित हरी ट्रीग्रास, अजवाइन के हरे पत्तों, तुलसी, शहद व अदरक से बने आर्गेनिक पेय 'मोनितो' की चुस्कियों के साथ गीता के कर्मयोग के अनुवादित संस्करणों की एक-एक सतरों से अपनी बौद्धिक जिज्ञासाओं का खाली पिटारा बांट रहे हैं।
अमरूद के गांछ, मनीप्लांट की बल-खाती लतरों व खस की सुगंधित टाटियों के झुरमुट के पीछे छुपे इन दो कमरों में ही स्पैरो यानी गौरैया के घोंसले जैसी नरमाहट-गरमाहट का अहसास कराने वाला यह नायाब कै फे भारतीय हस्तकला के लाघव से बुने -गढ़े बंदनवार व कंदीरों से सजे कमरों में बड़ी ही तन्मयता से गीता के फ्रेंच अनुवाद के अध्ययन में डूबे हैं फ्रांसिसी अतिथि केवी मेस्तरां। सामने बिल्कुल सादी महुआ के काठ वाली चौकी पर सरसों के तेल में सने बैगन के भर्ते के साथ कांसे की थाली में परोसी गई दलपिठौरी 'दालफरा' को उनकी एकाग्रता भंग हेाने का इंतजार है। कहती हैं बिल्कुल अलहदा तौर तरीकों वाले स्पैरो की संचालिका साक्षी 'हमारी कल्पना थी पर्यटन नगरी काशी में स्विटजरलैंड के स्विस कॉटेज की तर्ज पर एक ऐसा रेस्तरां देने की जिसमें बगैर किसी समय सीमा के विदेशी मेहमान शुद्ध देसी व्यंजनों वारी हमारी ठेठ रसेाई के व्यंजनों के रसास्वादन के साथ हमारी मेहमानवाजी की आत्मीयता को भी पहचान सकें। भारतीय साज सज्जा के बीच बैठकर कुछ अनुभवों तो कुछ किताबों के जरिए क्या है बनारस और क्या है भारत इन दोनों का रहस्य जान सकें।'
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वाणिज्य संकाय से वर्ष २०१७ में मास्टर्स इन वॉरेन ट्रेड की उपाधि लेकर निकली साक्षी बताती हैं कि बजाय किसी नौकरी का पीछा करने के हमने अपने सपनों को जमीन दी। बिल्कुल नए अंदाज में कोशिश की भारत व बनारस की कला, संस्कृति, जीवनशैली के साथ ही अपने लोकजीवन की एक संपूर्ण छवि पेश करने की। कैफे की आलमारियों में प्रदर्शित लकड़ी के खिलौने, सिंधोरा 'सिंदूरदान', पायल, बिछिया, बेसर, झुमके जैसे भूले बिसरे आभूषण आभास कराते हैं साक्षी की कल्पनाओं के साथ उनकी रचनाधर्मी सोच का भी। उनके कठिन परिश्रम व लीक तोड़कर नई राह बनाने के उनके इरादों के लोच का भी। इनका कहना है कि इतने सारे प्रयोगों के अलावा बड़ी चीज यह है कि हम पर्यटकों को घर में ही बैठे होने का अहसास कराते हैं। बाकी व्यंजनों के साथ सुकून व इत्मीनान की एक थाली अलग से लगाते हैं। यही नहीं इस देसी रसोई में ही विभिन्न भाषाओं में गीता सहित भारतीय संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों वाली लाइब्रेरी भी सैलानियों के लिए लुभाती है।
सब कुछ सीधे खेत से
बताती हैं साक्षी स्पैरो की सबसे बड़ी विशेषता है हर खाद्य सामग्री का सीधे खेत से रसोईघर तक पहुंचना। उनका दावा है दाल, चावल, सब्जी से लगायत शहद व गुड़ तक सीधे गांव से मंगाया जाता है। यहां तक कि आर्गेनिक पेय तक में कैफे के गमलों में लगाए गए भैषेजीय पत्तों को भी उपयोग में लाया जाता है।
एक विचार बिल्कुल अलबेला
नए-नए नुस्खे आजमाने में माहिर साक्षी ने कैफे की सेवाओं को भी एक नया आयाम दिया है। किचन से लेकर टेबल तक की सर्विस के लिए कूड़ा बिनने वाली बच्चियों को ही मौका देकर उन्हें अपने पांवों पर खड़ा किया है।