क्यों भक्तों के लिए कुबेर के खजाने से कम नहीं मां अन्नपूर्णेश्वरी के दरबार से मिली अठन्नी
धनतेरस पर आज से चार दिनों के लिए खुलेगा काशी स्थित स्वर्णमयी अन्नपूर्णेश्वरी मां का दरबार।
वाराणसी (प्रमोद यादव)। Dhanteras 2019 आज सुबह पांच बजे मंदिर के पट खुलने की प्रतीक्षा में, गुरुवार शाम से ही भक्तों की कतार एक किलोमीटर के पार विस्तार पा चुकी थी। साल में सिर्फ चार दिनों के लिए खुलने वाले काशी के स्वर्णमयी अन्नपूर्णेश्वरी दरबार में भक्तों का रेला उमड़ पड़ा है। मां के दर्शनों के साथ-साथ प्रसादस्वरूप सौभाग्यशाली अठन्नी पाने के लिए भक्तों की बेचैनी देखते ही बनती है। चार दिनों तक लंबी कतार लगी रहेगी। दर्शनार्थियों के बीच वितरण के लिए इस साल मंदिर प्रबंधन ने 4.50 लाख अठन्नियां मंगाई हैं।
अठन्नी जिन जाना, इ हौ मइया क खजाना...
बाबा विश्वनाथ के आंगन में विराजमान मइया अन्नपूर्णा कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी यानी धनतेरस पर भक्तों को प्रथम दर्शन देंगी। दर्शनों के लिए भक्तों की यह बेचैनी हो भी क्यों नहीं, जब माता के दरबार की शान में स्वयं बाबा विश्वनाथ याचक की भूमिका में खड़े हैं। काशीपुराधिपति को भी अन्नदान देने वाली मां अन्नपूर्णेश्वरी के दरबार से मिली अठन्नी (50 पैसा का सिक्का) भक्तों के लिए कुबेर के खजाने से कम नहीं है।
इस दरबार के दर्शन वर्ष में सिर्फ चार दिन
मान्यता है कि काशी नगरी के पालन-पोषण को देवाधिदेव मां की कृपा पर ही आश्रित हैं। अन्नदात्री मां की ममतामयी छवियुक्त ठोस स्वर्ण प्रतिमा कमलासन पर विराजमान और रजत शिल्प में ढले भगवान शिव की झोली में अन्नदान की मुद्रा में है। दायीं ओर मां लक्ष्मी और बायीं तरफ भूदेवी का स्वर्ण विग्रह है। इस दरबार के दर्शन वर्ष में सिर्फ चार दिन धनतेरस से अन्नकूट तक ही होते हैं। इसमें पहले दिन धान का लावा, बताशा के साथ मां के खजाने का सिक्का प्रसादस्वरूप वितरित किए जाने की पुरानी परंपरा है। इसमें काशी ही नहीं, देश-विदेश से आस्थावानों का रेला उमड़ता है। अन्य दिनों में मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतीकात्मक प्रतिमा की दैनिक पूजा होती है।
प्राचीनता का उल्लेख
माना जाता है कि बाबा से पहले ही देवी अन्नपूर्णा यहां विराजमान थीं। वर्ष 1775 में काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण शुरू हुआ तब पाश्र्व में देवी अन्नपूर्णा का मंदिर था। मां की स्वर्णमयी प्रतिमा की प्राचीनता का उल्लेख भीष्म पुराण में भी है। महंत रामेश्वरपुरी के अनुसार, वर्ष 1601 में मंदिर के महंत केशवपुरी के समय में भी प्रतिमा का पूजन हो रहा था।